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जीवन
 
जीवन विषाद नहीं, सुख है
है मन का ये भ्रम जो दुख है
मधुर स्मृति से आलिंगन-बद्ध
हो राह में बैठ रोता मूरख है
 
इक बिजली के कौंधने से गर
डर कर काँप रहा बदन तर
छोड़ सहानुभूति  स्वयं पर
आ उठ चल बाहर जीवन है
 
चला पथरीली पगडंडी पर से
गुज़र रही कड़ी धूप सर से
डर न इस परीक्षा प्रहर से
छाँव लिये प्रतीक्षारत तरुवर है
 
द्वार द्वार भटक रहा रे पागल
नाव छोटी तेरी विराट सागर
मांगे पानी मिले लवण जल
हाथ मे कुंड तेरे मीठा जल है
 
निराशा खडी है देख मुँह बाये
घेरने को तत्पर जो हो उपाय
दिखेंगे तुझे अन्धेरों के साये पर
गुफ़ा के अन्तिम द्वार पर किरन है
आ उठ, चल बाहर जीवन है
आ उठ, चल बाहर जीवन है...
 
 

सुखद कल्पना
 
हर रोज़ डूबते सूरज के साथ
सुबह की किरण के उज्ज्वल मुस्कान
की सुखद कल्पना
शाम की थकान उतार देती है
हर रोज़ सुबह उठ कर
बादल के पीछे छुपे
उस किरण के निकलने
की आस में
फिर शाम हो जाती है
और गुज़र जाता है यूँ ही
हर रोज़
एक कल्पना के साथ
एक सुखद कल्पना
 
चलो अकेले
 
चले न कोई संग तुम्हारे
चलो अपने आप अकेले
राह की गर्द उड़ जायेगी
आँधी जो तुम बन सकोगे
 
राहें लगती होंगी सूनी
राह ही कुछ ऐसी चुनी
पहला क़दम है ज़रा ठहरो
चट्टान भी हटाने होंगे

सोचोगे कोई साथ तो देगा
जनम का साथी हाथ पकडेगा
हो सकती हैं ये बातें कहानी
कहानी अब तुम खुद बुनोगे

सुन्दर शामों के सपनो को
खोने से अब क्या डरते हो
रुपहले जगमग  होते होंगे
काली रातें  खुद रोशन करोगे

 
साथ न देता कोई यहां पर
तुम्हारी आशा तुम्हारी है बस
किसी भंवर में न उलझो तुम
नाते झूठे कब समझोगे
 
चले न कोई संग तुम्हारे
चलो अपने आप अकेले
अमर बेल नहीं तुम सुन्दर
जो हर शाख़ से लिपटोगे
 

नई सुबह
 
कई दिनों की बारिश,
भीगा मन, भीगा तन
सब कुछ सुंदर
सावन न बीत जाये कहीं
सुंदर कई नज़ारे,
बूँदों के बादलों से वादे
अचानक बिजली का शोर
आसमां की गरज
और ज़ोर से रोता आसमां
मगर फिर एक हल्की सी आभा
आसमानी छत चीर कर
एक किरण
फिर एक नई सुबह
बादलों से घिरा नहीं रहता
हमेशा जीवन
आह! कितना सुंदर है भोर
नई किरण तुम्हें भी ढूँढ लेगी
सखी, आशा है...

सोता हूँ आराम से...

फुटपाथ पर सब कुछ भुला, सारे दिन की थकान के बाद, आराम की नींद सोने वालों के नाम लिखी थी ये कविता...

घुटनों से भर पेट
फटे आस्मां से ढक बदन
पैबंद लगी ज़मीं पर
सोता हूं मैं आराम से....

माथे पर की ओस हटा
गरजते बादलों को डरा
चाँद को भी मुँह चिढा
सोता हूँ मैं आराम से...

दीवारों से लड़ झगड़
कोहनी का तकिया लगा
ऊंची शाख़ पर सपने टांग
सोता हूँ मैं आराम से...

तारों से आँखें लड़ा
अपने को गले लगा
बाहों की गर्मी में
सोता हूँ आराम से...
 

अंतर्द्वंद

रचना: अप्रैल २००६

ज्योतिर्पुंज धुंधलके बीच

घने कुहरे जाल में फंसा

काट कर धकेल उसे पीछे

टटोलता सा मन बढ़ रहा

भ्रम में लिपटी हुई तृष्णा

एक स्वप्न पा लेने की चाह

नकार कर मन सत्य को भी

मरीचिका में भटक रहा

आस्वादन सोमरस का फिर

स्वप्न सजीले का निमंत्रण

क्या संभव है मुक्ति यहां से

भ्रमजाल में फँसा ये मन?

सत्य से जूझता कभी ये मन

स्वप्न में खेलते कभी नयन

कभी तो मिटेगी ये दूरी

कभी तो मिलेंगे सत्य सपन

खींचतान इसी अंतर्द्वंद में

कुछ क्षण और निकल जायेंगे

कुहरा चीर ज्योतिर्पुंज तक

क्या राह में स्वप्न ढल जायेंगे?

जान कर भी मृत्यु अडिग है

पागल जीवन जीता उन्माद

स्वप्न बिन इस सत्य का भी

कैसे ये मन पायेगा स्वाद

तम है घिरा निस्तब्ध रात

बस एक ज्योतिर्पुंज की धार

जगमगा उठता है जहाँ

काली धरा करती श्रंगार

राह कठिन भटकाव अनेक

मधुर स्मृति हैं छल बहुतेरे

आंख मुंद रहे पर मन चक्षु

चला स्वप्न को पा लेने सवेरे

तो कैसे राह में चलते चलते

बैठेगा पथिक थक कर चूर

जीवन योगी एक पाँव पर

तप का फल पायेगा ज़रूर


 

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