घुटनों से भर पेट
फटे आस्मां से ढक बदन
पैबंद लगी ज़मीं पर
सोता हूं मैं आराम से....
माथे पर की ओस हटा
गरजते बादलों को डरा
चाँद को भी मुँह चिढा
सोता हूँ मैं आराम से...
दीवारों से लड़ झगड़
कोहनी का तकिया लगा
ऊंची शाख़ पर सपने टांग
सोता हूँ मैं आराम से...
तारों से आँखें लड़ा
अपने को गले लगा
बाहों की गर्मी में
सोता हूँ आराम से...
रचना: अप्रैल २००६
ज्योतिर्पुंज धुंधलके बीचघने
कुहरे जाल में फंसाकाट कर धकेल उसे पीछे
टटोलता सा मन बढ़ रहा
भ्रम में लिपटी हुई तृष्णा
एक
स्वप्न पा लेने की चाहनकार कर मन सत्य को भी
मरीचिका में भटक रहा
आस्वादन सोमरस का फिर
स्वप्न सजीले का निमंत्रण
क्या संभव है मुक्ति यहां से
भ्रमजाल में फँसा ये मन?
सत्य से जूझता कभी ये मन
स्वप्न में खेलते कभी नयन
कभी तो मिटेगी ये दूरी
कभी तो मिलेंगे सत्य सपन
खींचतान इसी अंतर्द्वंद में
कुछ क्षण और निकल जायेंगे
कुहरा चीर ज्योतिर्पुंज तक
क्या राह में स्वप्न ढल जायेंगे?
जान कर भी मृत्यु अडिग है
पागल जीवन जीता उन्माद
स्वप्न बिन इस सत्य का भी
कैसे ये मन पायेगा स्वाद
तम है घिरा निस्तब्ध रात
बस एक ज्योतिर्पुंज की धार
जगमगा उठता है जहाँ
काली धरा करती श्रंगार
राह कठिन भटकाव अनेक
मधुर स्मृति हैं छल बहुतेरे
आंख मुंद रहे पर मन चक्षु
चला स्वप्न को पा लेने सवेरे
तो कैसे राह में चलते चलते
बैठेगा पथिक थक कर चूर
जीवन योगी एक पाँव पर
तप का फल पायेगा ज़रूर