मृगमरीचिका
ये संसार बीहड़ बन सुख-दुख
का जाल
हाय! मैं बन-बन
भटकी जाऊँ
जीवन-जीवन दौड़ी
भागी कैसी पीड़ा ये मन लागी फूल-फूल
से बगिया-बगिया इक आशा
में इक ठुकराऊँ रंग-बिरंग
जीवन जंजाल सखि! मैं जीवन
अटकी जाऊँ
हाय!
मैं बन-बन भटकी जाऊँ
आड़े तिरछे बुनकर
आधे कितने इंद्रधनुष
मन काते सुख-दुख दो हाथों
में लेकर माया डगरी चलती
जाऊँ ये नाते रिश्तों
के जाल सखि! मैं डोरी लिपटी
जाऊँ
हाय! मैं बन-बन
भटकी जाऊँ॥
रोती आँखें जीवन सूना देखे
कब मन जो है दूना पिछले
द्वारे मैल बहुत है संग
बटोर सब चलती जाऊँ पा कर
भी सब मन कंगाल सखि! किस
आस में भटकी जाऊँ
हाय मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥
एक सच्ची अर्चना
धूप औ' चन्दन फूल कहाँ नवैद्य
है कर्मफल यहाँ हृदय में
प्रभु तुम विराजो ये मेरी
पूजा स्वीकारो
किसी भाव में या अभाव
में आस निरास के घेराव
में दौडते भागते जीवन
के किसी दोपहर के ठहराव
में
माँग ना लूँ इक छाँव
प्रभु छिल जाये अगर पाँव
प्रभु मरहम न माँग लूँ
कभी लग जाये चलते घाव प्रभु
माँग न बैठूँ कभी शूल तोडूँ
न कभी अपने उसूल पीछे से
हो प्रहार अगर अपनों से
जो कभी हो कभी भूल
हर 'उस' में मैं देखूं
तुमको ढूँढूं किस मन्दिर
या बन को इतनी रोशनी देना
दाता अपने घर में पाऊँ
तुमको
तुम अदृश्य
कभी न माना कि बसते हो
तुम कहीं किसी अदृश्य
नगर में दुनिया को ठहराया
झूठा झूठ से खुद को संवारा
मैने
तन मन धन से मैने पुकारा तुम्हें
जब नहीं थे तुम वहां तो
कैसे भगवान कैसे देवता कौन
जानता है तुम कहां
छोडी तब पूजा अर्चना
मैने गहन तम भी जब गहराया मैने
कभी न तुम्हें पुकारा कभी
न नाम तुम्हारा दुहराया
सूने संसार में जब भी
अकेला मैने खुद को खडा
पाया घोर अंधकार में भी
खुद को खुद से ही गले लगाया
खुद ही बनी पीडा की साथी खुद
ही चढी चढाई कठिन खुद ही
दुख को सुख से मिलाकर जीवन
जीने का साधन पाया
और ऐसे एक दिन जब बैठी पीछे
मुड कर देखा मैने मेरे
अंदर असीम शक्ति का कारण
मैने तुम्हें खडा पाया
आज कठिन राह है मरुथल फिर
भी स्रोत पानी की धारा आज
भी नाम नहीं तुम्हारा पर
कहीं खुद में तुम्हें
बसा पाया
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