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पूजा 
 
पूजा-वंदना में ज़्यादा यकीं नहीं है मगर ये ज़रूर मानती हूं कि अपने अंदर की शक्ति का एक बडा हाथ होता है कठिनाई के समय उस समय को धीरज के साथ पार करने में। वही शक्ति है जो विवेक बन हमें राह दिखाती है, सही गलत की पहचान कराती है और हमारे ही अंदर प्रभु का  अदृश्य रूप में वास है । इस शृंखला में सभी कवितायें मन की गहरायी से उपजी हैं।
 

मृगमरीचिका ये संसार
बीहड़ बन
सुख-दुख का जाल
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ


जीवन-जीवन दौड़ी भागी
कैसी पीड़ा ये मन लागी
फूल-फूल से बगिया-बगिया
इक आशा में इक ठुकराऊँ
रंग-बिरंग जीवन जंजाल
सखि! मैं जीवन अटकी जाऊँ

हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ

आड़े तिरछे बुनकर आधे
कितने इंद्रधनुष मन काते
सुख-दुख दो हाथों में लेकर
माया डगरी चलती जाऊँ
ये नाते रिश्तों के जाल
सखि! मैं डोरी लिपटी जाऊँ

हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥

रोती आँखें जीवन सूना
देखे कब मन जो है दूना
पिछले द्वारे मैल बहुत है
संग बटोर सब चलती जाऊँ
पा कर भी सब मन कंगाल
सखि! किस आस में भटकी जाऊँ

हाय मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥

एक सच्ची अर्चना
 
धूप औ' चन्दन फूल कहाँ
नवैद्य है कर्मफल यहाँ
हृदय में प्रभु तुम विराजो
ये मेरी पूजा स्वीकारो
 
किसी भाव में या अभाव में
आस निरास के घेराव में
दौडते भागते जीवन के
किसी दोपहर के ठहराव में
 
माँग ना लूँ इक छाँव प्रभु
छिल जाये अगर पाँव प्रभु
मरहम न माँग लूँ कभी
लग जाये चलते घाव प्रभु
 
माँग न बैठूँ कभी शूल
तोडूँ न कभी अपने उसूल
पीछे से हो प्रहार अगर
अपनों से जो कभी हो कभी भूल
 
हर 'उस' में मैं देखूं तुमको
ढूँढूं किस मन्दिर या बन को
इतनी रोशनी देना दाता
अपने घर में पाऊँ तुमको
 

तुम अदृश्य
 
कभी न माना कि बसते हो तुम
कहीं किसी अदृश्य नगर में
दुनिया को ठहराया झूठा
झूठ से खुद को संवारा मैने

तन मन धन से मैने पुकारा
तुम्हें जब नहीं थे तुम वहां
तो कैसे भगवान कैसे देवता
कौन जानता है तुम कहां

छोडी तब पूजा अर्चना मैने
गहन तम भी जब गहराया
मैने कभी न तुम्हें पुकारा
कभी न नाम तुम्हारा दुहराया

सूने संसार में जब भी अकेला
मैने खुद को खडा पाया
घोर अंधकार में भी खुद को
खुद से ही गले लगाया

खुद ही बनी पीडा की साथी
खुद ही चढी चढाई कठिन
खुद ही दुख को सुख से मिलाकर
जीवन जीने का साधन पाया

और ऐसे एक दिन जब बैठी
पीछे मुड कर देखा मैने
मेरे अंदर असीम शक्ति का कारण
मैने तुम्हें खडा पाया

आज कठिन राह है मरुथल
फिर भी स्रोत पानी की धारा
आज भी नाम नहीं तुम्हारा
पर कहीं खुद में तुम्हें बसा पाया
 

pooja.jpg

तुम ही तो थे...
 
तुम ही तो थे जो साथ थे मेरे
माना न पर कभी तुम्हें भगवान
जब यथार्थ से टकरा कर लहुलुहान हो
काँपे थे थर थर मेरे प्राण
आकाश ने सिर्फ़ अन्धेरा बरसाया जब 
किसी भीषण दुख में मेघ डूब के रोये 
तुम्ही तो थे जिसने मेरी पीठ सहलाई
और मेरे जीवन में कही से नव गति आई
कभी जब सूखी रेत की आंधी चली
साथ उड़ चला था मेरा भीरु मन भी
उस आंधी के एक हवा ने जो मुझे धकेला
हाथ थाम कर तुमने रहने न दिया अकेला
एक किनारे पर खडा खुद को मैने पाया
कब चुपके से रास्ता तुमने दिखाया
तुम्ही तो थे जिसने मुझे जीवन समझाया
जटिल ताने बाने में बंधा रूप इसका दिखाया
तुम ही तो थे जिसने हाथ बढा कर
अपने सशक्त हाथों से मेरा हाथ थामा
रातों को मेरे अन्धेरे मन में आकर
सिसकियों को एक सुर में बाँधा
मैने न मानी कभी तुम्हारी माया
धूप चन्दन न कभी फूल चढाया
पर शीश जो एक बार मैने आज झुकाया
अपने ही हृदय में अद्रुश्य हो तुम्हें बसा पाया
 
 

एक और प्रार्थना
 
आकाश असीम अनंत फैला
चन्द्रमा ज्यों नभ में अकेला
तारों से भरा विशाल गगन
आलोकित जग तुम में मगन
तुम बिन्दु बन हाथ में थामे
हम डोर बंधे संग तुम्हारे
मौन चले शीश झुकाये
प्रेम ज्योत मन में जलाये
साधना नहीं जाने ये मन
न ही माथे पर सजे चंदन
तुम मेरी लेखनी में विराजे
भावना बन गीतों में सजे
मुक्ताहार बन हृदय में बसे
स्वर्णकण सम तन में सजे
तुम अदृश्य हो घर में रहे
जब थके पांव तुम छांव बने
बिना आरती पूजा के तुम
मेरे प्राणों में विवेक बन रहे
भूल जो हुई होगी राह में
फिर न दोहराऊं किसी चाह में
इतनी शक्ति देना हे प्रभु
हर राह पे मैं सत्य बन चलूं

all poems by Manoshi Chatterjee