कुछ दोहे
कोने में है
माँ पड़ी, जैसे इक सामान
रिश्ते
भी है तौलती, दुनिया बड़ी
दुकान
खु़शी छूटती हाथ
से, जैसे फिसले धूल
ढूँढा
अपने हर तरफ़, बस इतनी सी
भूल
जाना तीरथ को नहीं,
ना मूरत में ध्यान
घर मेरा संसार ये,
यहीं बसे भगवान
चाहे दुनिया भी
मिले, मिटती कब है प्यास
चाँद उग आया घर में,
फिर भी जगत उदास
माँग आज है कर रहा,
हक़ से हर इन्सान,
बस इक
मिल सकता नहीं, माँगे से
सम्मान
खुद को लो पहले बचा,
ये कुर्सी का खेल
छुरा
भोंके दोस्त भी, भँवर में
दे धकेल
कहे ’मानसी’ सुन
सभी, खायेगा तू चोट
अति
मधुर वाणी उसकी, जिसके
मन में खोट