अभिलाषा
झंझावात में घिरा तम
कुटिल, मन के कोने में बाँध
रहा है पाश जकड़ कर निरंतर
रोक रहा है स्वछंद हो उड़ने
की मेरी अभिलाषा
अंतर्द्वंद में खेलता हिचकोले
खाता, संभलता घना कुहासा मगर
देखने की कोशिश अंधेरे
के कटने की आशा मौन, अव्यक्त,
मगर उजागर मेरी अभिलाषा
लिपटी है एक महीन सोने
के तार से, चमकती आशा की
किरण से वो पूर्णता की
ओर निहारती एकटक मेरी
अभिलाषा
प्रतीक्षा
करो मेरे लिये, हमें मिलना
है समय से एक साथ मिल कर तोड़ना
है सारे काल के नियमों
को पूर्णता करनी है प्राप्त बन
कर मेरी अभिलाषा
ठहराव
ठहराव अच्छा होता
है कभी कभी
शायद चलने से मंज़िल मिल
जाये ख़्वाब की सूरत बन
जाये शायद पर वहाँ तक पहुँचने
के सफ़र में जो कभी हक़ीक़त
बदल जाये तब? क्यों न ठहर
कर बाँध लो उन लम्हों को
जो झोली में अचानक ही यूँ
आ गिरे थे बिन पूछे ही संग
लिपटे थे रोक लो जाने से
उनको ज़िंदगी में जो आ रुके
थे
जो है वो ठहर
जाये बस... ज़िंदगी यहीं
गुज़र जाये बस...
अहसास
ख़्वाबों के बीच सुबह
के झीने कुहासे में घिरा जीवन
का अस्तित्व एक धुँधला
सा चेहरा पहचाना और बेहद
अपना मगर धूँये जैसा
ही निराकार जिसे पहना
नहीं जा सकता पकड़ा नहीं
जा सकता सिर्फ़ एक अहसास
है मेरे लिये...
सवाल
दे सकोगे वो वक़्त
वापस मुझे तुम जब मैंने
खारे पानी में डूबना सीखा डूब
कर उभरना भी सीखा ख़ुद ही वो
लम्बी दास्तान बदल सकोगे
तुम? खिलाड़ी तो वही हैं,
आज भी जंग भी वही छिड़ी है मगर
आज ख़ून नहीं दिखता कहीं सब
ख़ुशनुमा लगता है सुंदर
बयार, खिलखिलाहट उजली
धूप, रेशमी चाँदनी सब तो
है तलवार की तेज़ धार से
छलनी वो अनगिनत दिन और
रातें दर्द भी कहाँ है
अब मगर क्या दे
सकोगे वो चंद लम्हें वापस जो
मेरी माथे पर पड़ती रेखाओं
और मेरी आँखों के नीचे
पड़ी झुर्रियों में कहीं
दबे मिलेंगे एक दिन ख़ुश्बू कब वापस आती
है दोबारा? चलो,
तुम ने मेरे सवाल का जवाब
नहीं दिया मगर मैं शायद
अगले जन्म का इंतज़ार करूँ तब
नई खु़श्बू होगी शायद नये
दिन और नई रातें, नई जंग,
नई तलवार एक और ज़िंदगी
की तैयारी?
(रचना: अगस्त २००८)
जिस बंधन में बँधा
न हो मन सिर्फ़ जकड़ा हो तन वो
खुल जाते हैं अक्सर
जिन
रिश्तों में घुला न हो
प्रेम सिर्फ़ चखने का कौतुहल वो
गल जाते हैं अक्सर
जो
रहते हैं कहने को तैयार
हमेशा वादे करते कर गुज़रने
के वो हकलाते हैं अक्सर
जो
पीकर बहके बहक कर पीये पीये
और बहके बार बार वो गिर
जाते हैं अक्सर
जो डरते
हैं ज़रा सी चोट से मलहम
लिये चलते हैं हरदम वो
सह जाते हैं अक्सर
जो
चलते हैं सही राह पर करते
हैं विश्वास सभी पर वो
पछताते हैं अक्सर
भटकाव
रचना: २००८ अगस्त
अनंत फैले नील सागर
के एक कोने में उठी लहर जो
अपनी दिशा जानने तट से
मिलने को आतुर चंचलता
की सीमा नापने बह चली ...
वृहद
सीमाहीन आकाश में क्षितिज
पार उठा तूफ़ान शांत धीर
अडिग से हारने एक छोटी
सी हवा अनजान तुच्छता
की सीमा लाँघने उड़ चली...
कई
परत गहराई से उठ कर छलावे
के ही पास भटकी संसार छोड़
संसार पा लेने किसी अनजाने
अधर अटकी खुशी अपनी सीमा
आँकने मचल पड़ी
आकांक्षा
की ऊँची सीढ़ी पर मिथ्या
आनंद से सराबोर धरती की
सच्चाई नकारने ’मैं’
ऊँचे आसमान की ओर कुछ क्षण
झूठ और बाँधने चल पड़ी
मिला
नहीं संसार न सुख मिला
भ्रम ही का आलिंगन कठिन
राह थोड़ा सुस्ताने गँवाया
सुंदर सोने सा मन अपने
नीड़ अब पर फैलाने मुड़ चली
कच्चा धागा
(रचना: २००६ फ़रवरी)
कच्चा धागा था... टूट
न जाये इसलिये कभी गांठ नहीं
लगाया टूटा फिर भी ज़रा
सा तनाव सह नहीं पाया तना
भी कहाँ था बस एक झटके ने उसे
तोड दिया गाँठ लगाती काश तान
देती बस एक बार तो टूटने
का दर्द नहीं होता, बेवजह
शर्तों पे रखी
ज़िन्दगी
शर्तों पे रखी ज़िन्दगी खुश
है, जी रही है मदहोशी में
खुशियों की खुद से ही बाज़ी
लगा कर चूर है, मदहोश पड़ी
है हार का मज़ा पी रही है पुरानी
शराब की तरह समा रहा है
नशा खू़न में मगर वो लड़खड़ाती
नहीं कभी गिड़गिड़ाती नहीं ख़ाली
जाम टूट रहे हैं ज़िन्दगी
हँस रही है बिल्कुल खाली
है वो भी पर वो कभी टूटती
नहीं भीड़ में अकेले सबसे बनावटी
रिश्ते सम्हाले रोज़ पैबंद
सी रही है शर्तों पे रखी
ज़िन्दगी खुश है, जी रही
है।
(१९ नवंबर २००६)
सदा रहा शंका
में मन
(रचना: २००५ दिसंबर)
सदा रहा शंका में
मन हर क्षण सोचा दोषी है
जग, मिथ्या जीवन छल के बंधन झूठ
की पोटली में छुपा बंधा
रहा दर असल मेरा मन सदा
रहा शंका में मन
सुंदर सजल स्वप्न
जाल में आ फंसा जो एक क्षुद्र
कण पार न की फिर सीमा रेखा सकुचित
भयभीत शिशु सम प्रीति
दो क्षण का आकर्षण कैसे
मानूं जनम का बंधन सदा
रहा शंका में मन
छल कपट के बाड़े में
बंध खो गया भोला बालक मन हर
पग रखा फूंक फूंक कर उड़ी
मैली धूल घिरा तम थर थर
कांप रहा हर क्षण चक्रव्युह
से निकले कैसे मन सदा रहा
शंका में मन
नाम लिपटा रहा जीवन
भर नागफनी के कांटों में
तन लडता रहा सब से हर पल सुंदर
दिखाने को आवरण आभूषण
के इस खेल में उलझ के रह
गया जीवन सदा रहा शंका
में मन
चुनना
(रचना २००४ सितंबर)
चुनना बडा मुश्किल
होता है सबसे अच्छी चीज़
सबसे सुन्दर सबसे बढिया,
सबसे ऊँची सबसे उम्दा चुन
लेना आसान नहीं चुन कर
फिर सोचना ओह वो ले गया
मेरी चीज़ मैं होता तो वही
चुनता कभी न खत्म होने
वाली ये दौड ये चुनने का
सिलसिला खत्म करना बडा
मुश्किल होता है चुनना
बडा मुश्किल होता है...
मेरी कविता
(रचना: २००५ उत्तरार्ध)
रात भर करवट
बदलती सपनों से कुछ पल
चुन आई मिलने जब मिली यूँ जीवन
के दो प्रहरी ज्यों खडे
रहे थे दो किनारे कभी मिले
नहीं मगर अन्दर उफ़नती
बातों को बाँध कर ज्यों
छोड दी हो बहा गयी आज कुछ
ऐसे ही कोरे पन्नों को
मेरी कविता....
कई कसमसाते
पलों की उलझन जो कभी कह
न सकी ज़ुबां बडी देर की
बेचारगी से विरहिनी बन
यूँ सादगी से सीप से दो
मोती चुरा आँखों के फैले
काजल में डुबो हल्के से
बारूद को छू कर अचानक धू
धू कर जल उठी लगा आग हर
तरफ़ मेरी कविता...
कभी मन
से रिसती चाश्नी को चख मदहोशी
के आलम में बिन समझी बातॊं
के नये मायनों को अपनी
बातों की डोर में पिरो
कर फुलझडी के सितारों
सी झरती बेवजह खिलखिला
कर हँसती कितने रंग बरसा
गयी मेरी कविता...."
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