उसकी बातों का सिलसिला चल पड़ा है आज
वो कहता है मेरे बारे में
कभी दुनिया की कहता है
उसकी बातों की दूरी नापते नापते
मेरे अंदर का मुसाफ़िर कभी सो गया
और कभी शाम को ही लगा कि
शायद उजाला हो गया
फिर एक दिन देखा
तो सामने का पत्थर भी रोता है
कहते थे वो इंसां एक शक्ल में मसीहा है
वो दीवारों के बीच की ईंट है
वो गु़बार उड़ाता एक मुसाफ़िर है
मगर, हक़ीकत यही है कि
तलाश-ए-मंज़िल ही मंज़िल है उसकी
एक लाश को वो भी ढोता है।