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कुछ नज़्म

एक उम्र हमने यूँ हार ली देख लो

तुम नहीं थे मगर काट ली देख लो


लौट कर कब कोई आता है जा के, ये

बात देर से सही, मान ली देख लो


बेवजह भी कभी आँखें रोती हैं, अब

ऐसी भी इक वजह जान ली देख लो


तुम पे बस मेरा हक़ है, गु़रूर छोड़ ये

ज़िंदगी किस तरह बाँट ली देख लो


’दोस्त’ तुम से जुदा होने का फ़ैसला

कर के मौत अपनी ही माँग ली देख लो

वक़्त आज कुछ थम सा गया है
 
वक़्त आज कुछ थम सा गया है
खींच ली है एक पल ने लगाम
डर कर ये सहम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है
 
रुक रुक के साँस चल रही है
मौत  दरवाज़े पर खडी है
ज़िन्दगी मगर ज़िद पे अड़ी है
दिल यहाँ कुछ रम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है
 
धूआँ भी नहीं उठ रहा कहीं
आँख में क्यों जल रहा पानी
बहता नहीं कमबख्त अब यहीं
कोरों पर आके जम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है

रोने की फ़फ़क कर आदत नहीं
रोने से भी मिलती  राहत नहीं
कह के हमें तुमसे मुहब्बत नहीं
लगा कोई मरहम सा गया है
वक़्त आज कुछ थम सा गया है

लौ और परवाना

एक चराग़ जल रहा था
लौ भी धीमे धडक रही थी
किसी हवा के झोंके से डर
धीर धीरे फ़फ़क रही थी
काले काजल से डूब कर के
धूयें की तार निकल रही थी
छाती उसकी जल रही थी
कांपती बाती मचल रही थी
दर्द में डूबा उसका दिल था
मगर बुझने को मुकर रही थी
प्रीतम के आने की आस में
दर्द पी के भी जल रही थी
और आया तभी वो परवाना
अपनी प्रिया से बातें करने
देखा न उसने दर्द प्रिया का
सारे दिन की कहानी कहने
चारों तरफ़ उसने लौ की
बलायें ली घूम घूम कर
प्रेम की ज्वाला में जल कर
प्यार जताया हौले से चूम कर
तभी हवा के एक झोंके ने
दो प्रेमी के मिलन से जल के
घेर लिया उन दोनों को आकर
अपना सौम्य रूप बदल के
परवाना जा लिपटा लौ के दिल से
और लौ ने भी पी को गले लगाया
दोनों ने जान दे दी अपनी
रात का साया फिर गहाराया
अंधेरा फिर से जाग उठा और
रात ने फिर से ली अंगडाई
मगर किसी दीवाने ने आकर
फिर एक दीये की लौ जलाई...


ऎ रात संभल कर चल ज़रा

ऎ रात संभल कर चल ज़रा

लगी है आँख इक पल ज़रा

बरसों की तू भी जागी है

अब चैन से तो ढल ज़रा

ऎ रात संभल कर चल ज़रा

 

ऎ ख्वाब तू भी सो ही जा

आँखों में हुल्लड़ ना मचा

पलकों पे बैठा पैर झुलाये

गिर न जा संभल ज़रा

ऎ रात संभल कर चल ज़रा

 

परछाईं चुपके छुप के चल

दीवारें देख सोती हैं

श्श्श्श आज इनको सोने दे

हर रात मुझ संग रोती हैं

तन्हा ही आज बहल ज़रा

 

ऎ चाँद हँसना छोड कर

बादल पे रख सर सो ही जा

छुप छुप के तू भी मेरे संग

है इंतज़ार में जगा

इतरा के कम मचल ज़रा

 

तन्हाई मुझको छोड के

तन्हा न जा, संग हो ले

बाँहों में मेरे नींद है

तो क्या, दामन में तू सो ले

मिलना फिर मुझसे कल ज़रा

 
रिश्ता
 
मेरे बिस्तर के पास खुला दरीचा
बाहर खुशियों का एक बगीचा
आस्मां झांक जाता अंदर कभी 
शायद मिल जाये थाह उसे भी
बादल जो यहीं कहीं छुपे हैं
उससे बच कर दूर आ निकले हैं
अंदर कमरे में बहुत कुछ पडा है
हर दीवार पर कोई लम्हा जडा है
इक अलमारी में सबसे छुप कर
एक रिश्ता रखा है सहेज कर
बादल और उस रिश्ते में जब भी
ठन आती है बेमतलब कभी भी
झर जाता है बादल तब झर झर
और आस्मां झांक जाता है अंदर
वो रिश्ता बडा पुराना सा है
बूढा भी कुछ हो सा चला है
बात बात पर रोने लगता है
पुरानी चादर ओढे रहता है
अनकही बातों की एक पोटली
और एक पुरानी सी मैली गठरी
बांध रखी है साथ उसने
बडे जतन से दी थी किसी ने
खामोश सा चुपचाप पडा रहता है
बादल भी जाने क्यों अडा रहता है
देखने पोटली में रखा क्या है
इस गठरी में आखिर बता क्या है
उस अनछुए गठरी को आखिर आज
खोल कर रिश्ता रो पडा बरसों बाद
बादल भी संग रुक ना सका उसके
गठरी का सामान देख के
पोटली में पडे थे कुछ टूटे सपने
खून से लथपथ आधे अधूरे
किसी के वादों की लाश भी पडी थी
आज भी नये कफ़न में लिपटी थी
उस लाश पर एक गुलाब का फ़ूल था
रिश्ते पर आखिरी दिन जो चढा था
आज जो खुल गया बंधा सामान
रिश्ता था अंजाम से अनजान
बादल चला गया आस्मां संग
छोड कमरे में बस अकेलापन
न रहा वादा न टूटा सपना
दीवारों पर जडा न कोई लम्हा
सब अचानक धूमिल होने लगा
रिश्ता अपना वजूद खोने लगा
 

all poems by Manoshi Chatterjee