मुझसे है ये
सारी दुनिया मान कर छलता
रहा अब ज़मीं में दफ़्न हूँ
ऊपर जहां चलता रहा बस मुकम्मल होने
की उस चाह में ताउम्र यूँ ख़्वाब
इक मासूम सा कई टुकड़ों
में पलता रहा
आग थी ना था धुआँ फिर क्या
हुआ कि रात भर बेवजह ही
जागकर मैं आँख यूँ मलता
रहा
दुनिया
की कुछ रस्मों में मैं
यूँ हुआ मस्रूफ़ कि अपने
मरने का भी मातम ना मना,
टलता रहा
उसको
अब मुझसे शिकायत है कि
मैं कमज़ोर हूँ ’दोस्त’
जिसकी ख़्वाहिशों में
उम्र भर ढलता रहा
फ़ाइलातुनx3 फ़ाइलुन
(बहरे रमल मुसम्मन
महज़ूफ़)
जाने क्या ठाने
बैठे हैं वो जो अदना से
बैठे हैं
हमको अब जब
होश नहीं वो हद की बातें
ले बैठे हैं
ख़ुद का इल्म
नहीं है उनको पर सब को जाने
बैठे हैं
कुछ ऐसे हैं,
चैन से उकता के जो ग़म पाले
बैठे हैं
जाने क्या
कुछ खो दें अब वो जो सब
कुछ पाने बैठे हैं
भीगी इन पलकों
पे जाने कितने अफ़साने
बैठे हैं
मेरी गज़लें
जिक्र हैं उनका
लो! वो ये माने
बैठे हैं
'दोस्त' अब उनको
क्या परखें जो ग़ैरों में
जा के बैठे हैं
तुझे यकीं ये हो न हो,
मैं दोस्त हूँ तेरा, हाँ
सच
तुझे यकीं ये हो न हो, मैं
दोस्त हूँ तेरा, हाँ सच ऐ
आइना मैं लगता हूँ जो अजनबी
तो क्या, हां सच
मैं दुश्मनी निभाउंगा
तो दोस्ती ही की तरह मुझे
तू आज़मा के देख तो कभी ज़रा,
हां सच
वो रोशनी की बात करता
होगा सबके सामने मगर उसे
भी खुद है अपने दाग़ का पता,
हाँ सच
मुझे भी जीतना तो आता
है मगर, यूँ हार कर गुरूर
को तेरे मैं जीतते हूँ
देखता, हाँ सच
मैं मंदिरों में उससे
कम ही मिलने आता जाता हूँ वो
रोज़ मेरे ’घर’ में मुझसे
आ के है मिला, हाँ सच
वो जाते जाते मुझको ढेरों
ग़म तो दे गया मगर अज़ीज़
है मुझे हरेक अश्क़ जो बहा,
हां सच
मैं आज सुर्खियों मे हूँ
तो ’दोस्त’ बस तेरे लिये, तुझे
नहीं पता जो कर्ज़ मुझपे
है तेरा, हाँ सच
तुमको
दिल से भुला दिया हमने
तुमको दिल
से भुला दिया हमने कर के
ये भी दिखा दिया हमने
काश
तुमको कभी लगा होता इश्क़
का क्या सिला दिया हमने
हमको
उनपे वफ़ा का हक़ था पर आज
ये हक़ भुला दिया हमने
किस
तरह ग़म दिखाते हम अपना दर्द
को फिर छुपा दिया हमने
जिस
लम्हा भी उन्हें नहीं
सोचा खु़द को उस पल मिटा
दिया हमने
उनकी आँखों
में जाने क्या था, जो राज़-ए-उल्फ़त
बता दिया हमने
अब चलो
’दोस्त’ जी के भी देखें मर
के तो हाँ दिखा दिया हमने
इक हवा का
झोंका दिल दहला गया
इक हवा का झोंका
दिल दहला गया आई जब आँधी
तो मैं टकरा गया
सोच के
देखो कि ख़ामी किसमें थी आते
जाते जो मिला बहला गया
एक
अदना जुगनु था, जब ठान ली ऐसे
चमका चाँद भी शरमा गया
देखो
मनमानी ये मेरे ख़्वाब
की जब जी चाहा, दिल हुआ
वो रुला गया
’दोस्त’
मुझको डर ख़िज़ां का था ही
कब मैं बहारों में ही तो
मुरझा गया
क्या हुआ 'गर जुगनु थे
कल अब सितारा बन गये
जो अंधेरों से उठे तो
फिर उजाला बन गये क्या
हुआ 'गर जुगनु थे कल अब सितारा
बन गये
सोचते थे इस जहां में
हम सभी से हैं जुदा राह
चल के दूसरों की हम ज़माना
बन गये
जब उठा तूफ़ां तो हम सैलाब
से बहने लगे डूबना था हम
को देखो पर किनारा बन गये
इस ज़मीं पर गिर के देखा,
स्याह रातें काट ली उठ
गये फिर आस्मां में और
हाला बन गये
(हाला- चंद्र मंडल/halo)
'दोस्त' तुम को तो भरोसा
था बड़ा तदबीर पर तुम भी
क्या तक़दीर का खुद ही
निशाना बन गये?
पूछ कर
मेरा पता
पूछ कर मेरा पता
वो अपने घर से चल दिये राह
जो मिली नई तो मंज़िलें
बदल दिए
वैसे तो ये दोस्ती आसान
थी उनके लिये बात आई जो
वफ़ा की झट से मुड़ के चल दिये
हम लड़ा किये
थे उनसे इक वफ़ा की बात पर दूसरों
से की वफ़ा मगर हम ही को छल
दिये
कहने
को तो रोज़ उनसे मात ही खाते
रहे आज हम इक बार जीते जो
वो उठ के चल दिये
जल
रहा है पानी भी यूँ आज हमारी
आँखों में उम्र भर की आग
सीने में थी सो उगल दिये
हज़ार क़िस्से
सुना रहे हो
हज़ार क़िस्से सुना
रहे हो कहो भी अब जो छुपा
रहे हो
ये आज
किस से मिल आये हो तुम जो
नाज़ मेरे उठा रहे हो
जो दिल ने चाहा वो
कब हुआ है फ़ज़ूल सपने सजा
रहे हो
सयाना
अब हो गया है बेटा उमीद
किस से लगा रहे हो
तुम्हारे संग जो लिपट
के रोया उसी से अब
जी चुरा रहे हो
मेरी लकीरें बदल गई हैं ये
हाथ किस से मिला रहे हो
ज़रूर कुछ ग़म है 'दोस्त'
तुम को खु़दा के घर से जो
आ रहे हो
ग़ज़ल
लाख चाहें
फिर भी मिलता सब नहीं है जुस्तजू पर आदमी को
कब नहीं है
हम अभी
तक नाते रिश्तों में बंधे
हैं वो नहीं मिलते
कि अब मतलब नहीं है
ढूँढता है दर बदर क्यों
मारा मारा प्यार
ही तो ज़िन्दगी में सब नहीं
है
हमने अपने राज़
क्या बताये उनको दोस्ती जो थी कभी वो अब
नहीं है
तेरे जैसे
इस जहाँ में 'दोस्त' कितने जो कहे उनका कोई मज़हब
नहीं है
मुझको अपना एक पल...
मुझको अपना एक पल वो दे
के अहसां कर गये जाने अनजाने
मेरे जीने का सामां कर
गये
क्या कहें कि सबसे आके
किस तरह से वो मिले मुझको
मेरे घर में ही जैसे कि
मेहमां कर गये
बाद मुद्दत के ज़रा सा
चैन आया था अभी हाल मेरा
पूछ कर वो फिर परेशां कर
गये
दोस्ती ना की सही अब दुश्मनी
कर ली, चलो कुछ नहीं तो
एक रिश्ता ही दरमयां कर
गये
लोगों का अब चांद से तो
फ़ासला कम हो गया अपने घर
की ही ज़मीं को 'दोस्त' वीरां
कर गये
मनाया
जाए मातम हर किसी ग़म का
ज़रूरी है
मनाया जाए मातम
हर किसी ग़म का ज़रूरी है छुपा दो दर्द ’गर हँस
कर, कहीं इक टीस रहती है
कोई बतलाये हमको क्यों
मुहब्बत रास ना आती वगरना इश्क़ में हमने
कहाँ कोई कमी की है
भरम टूटा जो उसके झूठे
वादों का तो अब उससे मुहब्बत है कि नफ़रत
है अभी दिल में ठनी सी है
कभी क्या तुम हमें
करते नहीं हो याद बिल्कुल
भी यहाँ आ़लम तो
ये है कि चिता इक जल रही
सी है
जो आये हैं
यहाँ तक बेखु़दी में ’दोस्त’
हम, ला के लहूलूहान
छोड़ा ये तो तुमने ज़्यादती
की है
. बहर- मफ़ाईलुन - ४ वज़न-१२२२
x ४
दुआ में तेरे असर हो कैसे गुलों का बस ये शहर हो कैसे
चलो तुम आ
तो गये हो लेकिन ये ज़िंदगी संग बसर हो कैसे
जो देखता हूँ मैं ख्वाब
लेकिन
खड़ा हवा में ये घर हो कैसे
मुहब्बतों पे
चले हो जब तो
ये इतना भी आसां
सफ़र हो कैसे
भटक रहे हैं तलाश
में हम
छुपा जो दिल में,
उधर हो कैसे
ख़फ़ा नहीं
हैं ऐ दोस्त तुमसे ये दोस्ती
भी मगर हो कैसे
कभी मुझे हो चैन इक तेरे
खयाल के सिवा
कभी मुझे हो चैन इक तेरे
खयाल के सिवा कहीं नज़र
तो आये कोई और भी तेरे सिवा
तु आ के मेरी ज़िंदगी में
देख ले है क्या नहीं हँसी,
खुशी, चहक, महक, सभी तो है
तेरे सिवा
लो याद तेरी आ गई, लो फिर
नई गज़ल हुई, लो फिर लगा
कि शेर में है कुछ नहीं
तेरे सिवा
न जाने क्यों मैं फिर
चला गया था उसकी बज़्म में न
जाने क्यों वहाँ सभी थे
खुश बस इक मेरे सिवा
चलो गुज़र गई जो फिर ये
शाम कल की ही तरह नया तो
कुछ हुआ नहीं कभी गुज़रने
के सिवा
मुझे कहां किसी सहारे
की उम्मीद थी मगर हज़ार
हाथ आये थे, बस एक हाथ के
सिवा
तू रख ज़रा सा सब्र ’दोस्त’,
कर गुमां भरम पे ये जहां
में उसके और कौन है भला
तेरे सिवा
ज़रा
कर के दिखाये तो
ज़रा कर के दिखाये
तो मुझे दिल से भुलाये
तो
चलो झूठे बहाने से ही
आये, पर वो आये तो
नई बातें
तो की उसने ग़ज़ल भी पर सुनाये
तो
हज़ारों हाथ आयेंगे वो
पत्थर को हटाये तो
लड़े
है सब मगर कोई नया मज़हब
चलाये तो
मैं उसको आँसू
दे दूँगा मेरा मातम मनाये
तो
तमन्ना है सौ सालों
की जो संग वो मुस्कराये
तो
.
अरे मैं जां
भी दे देता
मगर वो आज़माये
तो
.
मनाना भी है
क्या मुश्किल
वो पहले हार
जाये तो
खुदा भी मिल
ही जायेगा किसी के काम
आये तो
कभी ऐ ’दोस्त’
वो मुझको खु़द अपने से
मिलाये तो
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