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ग़ज़ल लिखने का प्रयास

तेरे सिवा

तुझे ज़रा तो चैन हो मेरे खयाल के सिवा
कहीं नज़र तो आये कोई और भी मेरे सिवा


तु आ के मेरी ज़िंदगी में देख ले है क्या नहीं
हँसी, खुशी, चहक, महक, सभी तो है तेरे सिवा


चलो गुज़र गई जो फिर ये शाम कल की ही तरह
नया तो कुछ हुआ नहीं कभी गुज़रने के सिवा


मुझे कहाँ किसी सहारे की उम्मीद थी मगर
हज़ार हाथ आये थे, बस एक हाथ के सिवा


तू रख ज़रा सा सब्र ’दोस्त’, कर गुमां भरम पे ये
जहां में उसके और कौन है भला तेरे सिवा


(मफ़ाइलुन x 4)
बहरे रज़ज़ मुसम्मन सालिम

आपकी आँखों में मुझ को मिल गई है ज़िंदगी
सहरा-ए-दिल में कोई बाक़ी रही ना तश्नगी

रात के बोसे का शम्मे पर असर कुछ यूँ हुआ
उम्र भर पीती रही रो-रो के उस की तीरगी

उससे मिलके एक तुम ही बस नहीं हैरां कोई
है गली-कूचा परेशां देख ऐसी सादगी

आजकल दिखने लगा है मुझको अपना अक़्स भी
आजकल क्या आइना भी कर रहा है दिल्लगी

झुक गया हूँ जब से उसके सजदे में ऐ ’दोस्त’ मैं
उम्र बन के रह गई है बस उसी की बंदगी
फ़ाइलातुन x3 फ़ाइलुन
(बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़)

चलो खु़द को ज़माने से मिला दें अब
नया ये काम कर के ही दिखा दें अब

बड़ा अनजान लगता है शहर मेरा
बड़ी ऊँची है दीवारें, गिरा दें अब

हो दिल में आग पर लब पर तबस्सुम हो
उन्हें मिलने का ये फ़न भी सिखा दें अब

तुम्हें है चैन ना मुझको क़रार आये
रुका सैलाब इन आंखों से बहा दें अब

नुमाइश की हमें आदत नहीं पर हाँ
सिहर जाओ जो ज़ख्म अपने दिखा दें अब

बड़ी धुँधली सी बातें कह रही आँखें
चलो झीना ये पर्दा भी हटा दें अब

उन्हें अपने जो ग़म से हो ज़रा फ़ुर्सत
तो 'दोस्त' अपना भी दर्द उनको सुना दें अब
.
(बहरे हज़ज़ मुसद्दस सालिम)
मुफ़ाईलुन x३

गुज़र गया वो ज़माना, पड़ी हैं यादें कहीं तो
दबी हुई है कहानी, हैं दफ़्न लाशें कहीं तो

मैं जो ज़मीं पे हूँ ज़र्रा, है आसमां उसकी मंज़िल
हैं फ़ासले तो बहुत पर, मिली हैं राहें कहीं तो

किया करूँ मैं दिनो-रात उसकी बातें सभी से
मेरी भी यादों से महके किसी की रातें कहीं तो

मैं हँस रहा हूँ हमेशा कमी नहीं है किसी की
कोई बताता तो होगा उसे ये बातें कहीं तो


बढ़ा के ग़म ढूँढते हैं कहाँ-कहाँ ’दोस्त’ अब हम
चलो उतारे ये सामां, किसी से बाँटें कहीं तो

( इस गज़ल को लिखते वक़्त ६ शेर बने। एक जो शेर और बना वो कुछ यूँ है)-

दिखा रहा था वोजैसे मुझे नहीं जानता है
उसे नहीं याद कोई सुनी हों बातें कहीं तो


(मफ़ाइलुन फ़ाइलातुन ) x 2

वो मुझसे क्या ख़फ़ा हुआ
वो मुझसे क्या ख़फ़ा हुआ
मैं अपने से जुदा हुआ
 
नहीं मिला मुझे वो, पर
मिला जो वो मेरा हुआ
 
बनेगा कैसे दोस्त वो
जो दुश्मनों का ना हुआ
 
जो अश्क आंखों में सजा
था राह में गिरा हुआ
 
पलक झपक ना जाये कि
ये अश्क है रुका हुआ
 
मैं मुस्करा रहा था पर
उसे ये भी गिला हुआ
 
चलो उसे तसल्ली हो
चलो मैं ही बुरा हुआ
 
किसी ने बाज़ी हार ली
किसी का जीतना हुआ
 
ऐ ’दोस्त’ रुक के देख तो
है दर मेरा खुला हुआ

आशना हो कर कभी नाआशना हो जायेगा
 
आशना हो कर कभी नाआशना हो जायेगा
क्या ख़बर थी एक दिन वो बेवफ़ा हो जायेगा
(आशना- friend, confidant नाआशना- stranger)
.
मैंने अश्क़ों को जो अपने रोक कर रक्खा, मुझे
डर था इनके साथ तेरा ग़म जुदा हो जायेगा

क्या है तेरा क्या है मेरा गिन रहा है रात-दिन
आदमी इस कश्मकश में ही फ़ना हो जायेगा
(कश्मकश- confusion, फ़ना- destroy, end)
.
मैं अकेला हूँ जो सारी दुनिया को है फ़िक्र, पर
तारों के संग चल पड़ा तो क़ाफ़िला हो जायेगा
.
मुझको कोई ख़ौफ़ रुसवाई का यूँ तो है नहीं
लोग समझाते हैं मुझको तू बुरा हो जायेगा

(रुसवाई- disgrace, bad name)

मैं समंदर सा पिये बैठा हूँ सारा दर्द जो
एक दिन गर फट पड़ा तो जाने क्या हो जायेगा

पत्थरों में ’दोस्त’ किसको ढूँढता है हर पहर
प्यार से जिससे मिलेगा वो खु़दा हो जायेगा

मिला जो तेरा हाथ
 
मैं राह में गिरा तो जैसे टूट कर बिखर गया
मिला जो तेरा हाथ तो वजूद ही सँवर गया

वो कह रहा था मुझसे कि हाँ देगा मुझपे जान भी
मगर मैं ऐतबार के ही नाम से सिहर गया

जो उसके रुख़ से गिर गया हिजाब मेरे सामने
मेरी नज़र से धुल के वो कुछ और भी निखर गया

सुना जो उसकी बज़्म में हुआ था तेरा ज़िक्र, मैं
हज़ार बार तेरा हाल जानने उधर गया

जो पूरी एक उम्र की बेचैनी उसके पास थी
वो जाते जाते अपनी पूंजी मेरे नाम कर गया

जो ज़र्रे को भी चल गया पता अब अपनी हस्ती का
वो उड़ के थोड़ी देर फिर ज़मीन पर उतर गया

महक रही है ज़िंदगी अभी भी जिसकी खुश्बु से
वो कौन था ऐ 'दोस्त' जो क़रीब से गुज़र गया
.
वज़न-१२१२
बहर-मफ़ाइलुन-४

ज़मीन से जुड़ा रहा

अंधेरे से भिड़ा रहा

था जुगनु पर अड़ा रहा

उड़ा तो मैं बहुत मगर
ज़मीन से जुड़ा रहा

बहुत रुलाया ज़र्रे ने

जो आँख में पड़ा रहा

(ज़र्रा- धूल का कण, particle)

.
पुरानी इक क़िताब का
सफ़ा कोई मुड़ा रहा
(सफ़ा- पन्ना, page)

हवा भी कम लड़ी नहीं
दरख़्त भी अड़ा रहा
(दरख़्त- पेड़, tree)
 
मैं वक़्त से उलझ गया
तु लम्हे में पड़ा रहा 
 
मैं सजदे में झुका रहा
वो बुत बना खड़ा रहा

वो याद बन के, ज़िंदगी
में मोती सा जड़ा रहा

मैं था धुँआ ऐ ’दोस्त’ पर
मिरा असर बड़ा रहा

दो ग़ज़ल
 
१.
हर हुनर हम में नहीं हम ये हक़ीक़त मानते हैं
पर हमारे जैसा भी कोई नहीं है जानते हैं

जो ख़ुदा का वास्ता दे जान ले ले और दे दे
हम किसी ऐसी ख़ुदाई को नहीं पहचानते हैं

हम अगरचे गिर गये तो उठ भी खुद ही जायेंगे पर
अपने बूते ही करेंगे जो दिलों में ठानते हैं

जो हमारा नाम है अख़बार की इन सुर्ख़ियों में
हम किसी नामी-गिरामी को नहीं पहचानते हैं

हम नहीं हैं वो जो गिर के, झुक वफ़ा की भीख माँगें
दिल इबादत है मुहब्बत को ख़ुदा हम मानते हैं

२.
आपकी यादों को जाते उम्र इक लग जायेगी
कौन जाने ज़िंदगी अब फिर सँवर भी पायेगी

हर तरफ़ चर्चा है उनके दिल के तोड़े जाने का
शोर-ओ-गुल की आदतें तो जाते जाते जायेगी

टूटते रिश्तों में पलता टूटता बचपन यहाँ
राह में भटकी जवानी गोली ही बरसायेगी

एक करके भूल जाये सारे वादे तोड़ दे
जो नहीं दोनों तरफ़ वो क्या निबाही जायेगी

हौसला है जीने का इतनी बुलंदी पर यहाँ
मौत भी आने से पहले थोड़ा तो घबरायेगी

कहाँ कहाँ खुशी को ...

कोई तो होता जो इस जहां में

दिलों की कहता मेरी ज़ुबां में

कहाँ कहाँ खुशी को ढूँढा

मिली मेरे दिल के ही मकां में

कभी टूटे वो ख्वाब मेरे

सजा रखे हैं जो आसमां में

है सारी दुनिया मेरी बदौलत

हर आदमी है इसी गुमां में

सभी ने खुद को खुदा बताया

मिला इंसां मगर इंसां में

ग़ज़ल-खा़क होने लगी ज़िंदगी है
 
खा़क होने लगी ज़िंदगी है
जीती भी जा रही ज़िंदगी है


साल गुज़रें हैं ऐसे तो कितने
आज भी पर वही ज़िंदगी है

उसकी बातों में कुछ यूँ असर है
ख़्वाब बुनने लगी ज़िंदगी है

ख़ास भी हों मगर कुछ नहीं हो
ऐसे रिश्तों से भी ज़िंदगी है

मेरे ग़म के जो परदे उठा दे
दूर से ही भली ज़िंदगी है

दोस्ती के भरम में अभी तक
दोस्ती जी रही ज़िंदगी है

मुश्किलों में जो हँसना सिखा दे
एक ऐसी परी ज़िंदगी है

ग़ज़ल
 
ये जहाँ मेरा नहीं है
कोई भी मुझसा नहीं है

मेरे घर के आइने में
अक्स क्यों मेरा नहीं है

उसकी रातें मेरे सपने
कुछ भी तो बदला नहीं है

आंखों में तो कुछ नहीं फिर
पानी क्यों रुकता नहीं है

सीने में इक दिल है मेरा
तेरे पत्थर सा नहीं है

दिख रही है आँख में जो
बात वो कहता नहीं है

मैं भला क्यों जाऊँ मंदिर
ग़म ने आ घेरा नहीं है

देखते हो आदमी जो
उसका ये चेहरा नहीं है

एक ढेला मिट्टी का भी
मेरा या तेरा नहीं है

दुआ में मेरी कुछ यूँ असर हो
 
दुआ में मेरी कुछ यूँ असर हो
तेरे
सिरहाने
हर इक सहर हो

जहां के नाना झमेले सर हैं
कहाँ किसी की मुझे ख़बर हो

यहाँ तो कुछ भी नहीं है बदला
वहाँ ही शायद नई ख़बर हो

मिले अचानक वो ख़्वाब मे कल
कहीं दुबारा न फिर कहर हो

दिलों दिलों में भटक रहे हैं
कहीं तो अब ज़िंदगी बसर हो

न याद कोई जुड़ी हो तुम से
कहीं तो ऐसा कोई
शहर हो

चलो चलें फिर
से लौट
जायें
शुरु से फिर ये शुरु सफ़र हो

कहने को तो वो मुझे...
 
कहने को तो वो मुझे अपनी निशानी दे गया
मुझ से लेकर मुझको ही मेरी कहानी दे गया
 
जिसको अपना मान कर रोयें कोई पहलू नहीं
वैसे तो सारा जहाँ दामन ज़ुबानी दे गया
 
घर में मेरे उस बुढ़ापे के लिये कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिये सारी जवानी दे गया
 
याद है कल रात को हम हँसते हँसते सोये थे
कौन आकर ख्वाब में आँखों में पानी दे गया
 
आदमी को आदमी से जब भी लड़ना था कभी
वो ख़ुदा के नाम का किस्सा बयानी दे गया
 
हमने तो कुछ यूँ सुना था उम्र है ये प्यार की
नफ़रतों का दौर ये कैसी जवानी दे गया
 
उस के जाने पर भला रोयें कभी क्यों जो मुझे
ज़िन्दगी भर के लिये यादें सुहानी दे गया
 
 

मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा
अब ज़मीं में दफ़्न हूँ ऊपर जहां चलता रहा

बस मुकम्मल होने की उस चाह में ताउम्र यूँ
ख़्वाब इक मासूम सा कई टुकड़ों में पलता रहा


आग थी ना था धुआँ फिर क्या हुआ कि रात भर
बेवजह ही जागकर मैं आँख यूँ मलता रहा


दुनिया की कुछ रस्मों में मैं यूँ हुआ मस्रूफ़ कि
अपने मरने का भी मातम ना मना, टलता रहा


उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ
’दोस्त’ जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा
फ़ाइलातुनx3 फ़ाइलुन
(बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़)

जाने क्या ठाने बैठे हैं
वो जो अदना से बैठे हैं

हमको अब जब होश नहीं वो
हद की बातें ले बैठे हैं

ख़ुद का इल्म नहीं है उनको
पर सब को जाने बैठे हैं

कुछ ऐसे हैं, चैन से उकता
के जो ग़म पाले बैठे हैं

जाने क्या कुछ खो दें अब वो
जो सब कुछ पाने बैठे हैं

भीगी इन पलकों पे जाने
कितने अफ़साने बैठे हैं

मेरी गज़लें जिक्र हैं उनका
लो! वो ये माने बैठे हैं

'दोस्त' अब उनको क्या परखें जो
ग़ैरों में जा के बैठे हैं

तुझे यकीं ये हो न हो, मैं दोस्त हूँ तेरा, हाँ सच
 
तुझे यकीं ये हो न हो, मैं दोस्त हूँ तेरा, हाँ सच
ऐ आइना मैं लगता हूँ जो अजनबी तो क्या, हां सच
 
मैं दुश्मनी निभाउंगा तो दोस्ती ही की तरह
मुझे तू आज़मा के देख तो कभी ज़रा, हां सच
 
वो रोशनी की बात करता होगा सबके सामने
मगर उसे भी खुद है अपने दाग़ का पता, हाँ सच
 
मुझे भी जीतना तो आता है मगर, यूँ हार कर
गुरूर को तेरे मैं जीतते हूँ देखता, हाँ सच
 
मैं मंदिरों में उससे कम ही मिलने आता जाता हूँ
वो रोज़ मेरे ’घर’ में मुझसे आ के है मिला,  हाँ सच
 
वो जाते जाते मुझको ढेरों ग़म तो दे गया मगर
अज़ीज़ है मुझे हरेक अश्क़ जो बहा, हां सच
 
मैं आज सुर्खियों मे हूँ तो ’दोस्त’ बस तेरे लिये,
तुझे नहीं पता जो कर्ज़ मुझपे है तेरा, हाँ सच

तुमको दिल से भुला दिया हमने
तुमको दिल से भुला दिया हमने
कर के ये भी दिखा दिया हमने

काश तुमको कभी लगा होता
इश्क़ का क्या सिला दिया हमने

हमको उनपे वफ़ा का हक़ था पर
आज ये हक़ भुला दिया हमने

किस तरह ग़म दिखाते हम अपना
दर्द को फिर छुपा दिया हमने

जिस लम्हा भी उन्हें नहीं सोचा
खु़द को उस पल मिटा दिया हमने

उनकी आँखों में जाने क्या था, जो
राज़-ए-उल्फ़त बता दिया हमने

अब चलो ’दोस्त’ जी के भी देखें
मर के तो हाँ दिखा दिया ह
मने

इक हवा का झोंका दिल दहला गया
 
इक हवा का झोंका दिल दहला गया
आई जब आँधी तो मैं टकरा गया

सोच के देखो कि ख़ामी किसमें थी
आते जाते जो मिला बहला गया

एक अदना जुगनु था, जब ठान ली
ऐसे चमका चाँद भी शरमा गया

देखो मनमानी ये मेरे ख़्वाब की
जब जी चाहा, दिल हुआ वो रुला गया

’दोस्त’ मुझको डर ख़िज़ां का था ही कब
मैं बहारों में ही तो मुरझा गया

क्या हुआ 'गर जुगनु थे कल अब सितारा बन गये
जो अंधेरों से उठे तो फिर उजाला बन गये
क्या हुआ 'गर जुगनु थे कल अब सितारा बन गये

सोचते थे इस जहां में हम सभी से हैं जुदा
राह चल के दूसरों की हम ज़माना बन गये

जब उठा तूफ़ां तो हम सैलाब से बहने लगे
डूबना था हम को देखो पर किनारा बन गये

इस ज़मीं पर गिर के देखा, स्याह रातें काट ली
उठ गये फिर आस्मां में और हाला बन गये
(हाला- चंद्र मंडल/halo)

'दोस्त' तुम को तो भरोसा था बड़ा तदबीर पर
तुम भी क्या तक़दीर का खुद ही निशाना बन गये?

पूछ कर मेरा पता
 
पूछ कर मेरा पता वो अपने घर से चल दिये
राह जो मिली नई तो मंज़िलें बदल दिए


वैसे तो ये दोस्ती आसान थी उनके लिये
बात आई जो वफ़ा की झट से मुड़ के चल दिये


हम लड़ा किये थे उनसे इक वफ़ा की बात पर
दूसरों से की वफ़ा मगर हम ही को छल दिये


कहने को तो रोज़ उनसे मात ही खाते रहे
आज हम इक बार जीते जो वो उठ के चल दिये
 
जल रहा है पानी भी यूँ आज हमारी आँखों में
उम्र भर की आग सीने में थी सो उगल दिये

हज़ार क़िस्से सुना रहे हो
 
हज़ार क़िस्से सुना रहे हो
कहो भी अब जो छुपा रहे हो


ये आज किस से मिल आये हो तुम
जो नाज़ मेरे उठा रहे हो


जो दिल ने चाहा वो कब हुआ है
फ़ज़ूल सपने सजा रहे हो


सयाना अब हो गया है बेटा
उमीद किस से लगा रहे हो


तुम्हारे संग जो लिपट के रोया
उसी से अब जी चुरा रहे हो

मेरी लकीरें बदल गई हैं
ये हाथ किस से मिला रहे हो


ज़रूर कुछ ग़म है 'दोस्त' तुम को
खु़दा के घर से जो आ रहे हो

ग़ज़ल

लाख चाहें फिर भी मिलता सब नहीं है
जुस्तजू पर आदमी को कब नहीं है

हम अभी तक नाते रिश्तों में बंधे हैं
वो नहीं मिलते कि अब मतलब नहीं है

ढूँढता है दर बदर क्यों मारा मारा
प्यार ही तो ज़िन्दगी में सब नहीं है

हमने अपने राज़ क्या बताये उनको
दोस्ती जो थी कभी वो अब नहीं है

तेरे जैसे इस जहाँ में 'दोस्त' कितने
जो कहे उनका कोई मज़हब नहीं है

 
मुझको अपना एक पल...
 
मुझको अपना एक पल वो दे के अहसां कर गये
जाने अनजाने मेरे जीने का सामां कर गये
 
क्या कहें कि सबसे आके किस तरह से वो मिले
मुझको मेरे घर में ही जैसे कि मेहमां कर गये
 
बाद मुद्दत के ज़रा सा चैन आया था अभी
हाल मेरा पूछ कर वो फिर परेशां कर गये
 
दोस्ती ना की सही अब दुश्मनी कर ली, चलो
कुछ नहीं तो एक रिश्ता ही दरमयां कर गये
 
लोगों का अब चांद से तो फ़ासला कम हो गया
अपने घर की ही ज़मीं को 'दोस्त' वीरां कर गये

मनाया जाए मातम हर किसी ग़म का ज़रूरी है
मनाया जाए मातम हर किसी ग़म का ज़रूरी है
छुपा दो दर्द ’गर हँस कर, कहीं इक टीस रहती है

कोई बतलाये हमको क्यों मुहब्बत रास ना आती
वगरना इश्क़ में हमने कहाँ कोई कमी की है

भरम टूटा जो उसके झूठे वादों का तो अब उससे
मुहब्बत है कि नफ़रत है अभी दिल में ठनी सी है

कभी क्या तुम हमें करते नहीं हो याद बिल्कुल भी
यहाँ आ़लम तो ये है कि चिता इक जल रही सी है

जो आये हैं यहाँ तक बेखु़दी में ’दोस्त’ हम, ला के
लहूलूहान छोड़ा ये तो तुमने ज़्यादती की है
.
बहर- मफ़ाईलुन - ४
वज़न-१२२२ x ४

दुआ में तेरे असर हो कैसे
गुलों का बस ये शहर हो कैसे

चलो तुम आ तो गये हो लेकिन
ये ज़िंदगी संग बसर हो कैसे

जो देखता हूँ  मैं ख्वाब लेकिन

खड़ा हवा में ये घर हो कैसे

मुहब्बतों पे चले हो जब तो

ये इतना भी आसां सफ़र हो कैसे

भटक रहे हैं तलाश में हम

छुपा जो दिल में, उधर हो कैसे

ख़फ़ा नहीं हैं ऐ दोस्त तुमसे
ये दोस्ती भी मगर हो कैसे

कभी मुझे हो चैन इक तेरे खयाल के सिवा
 
कभी मुझे हो चैन इक तेरे खयाल के सिवा
कहीं नज़र तो आये कोई और भी तेरे सिवा
 
तु आ के मेरी ज़िंदगी में देख ले है क्या नहीं
हँसी, खुशी, चहक, महक, सभी तो है तेरे सिवा
 
लो याद तेरी आ गई, लो फिर नई गज़ल हुई,
लो फिर लगा कि शेर में है कुछ नहीं तेरे सिवा
 
न जाने क्यों मैं फिर चला गया था उसकी बज़्म में
न जाने क्यों वहाँ सभी थे खुश बस इक मेरे सिवा
 
चलो गुज़र गई जो फिर ये शाम कल की ही तरह
नया तो कुछ हुआ नहीं कभी गुज़रने के सिवा
 
मुझे कहां किसी सहारे की उम्मीद थी मगर
हज़ार हाथ आये थे, बस एक हाथ के सिवा
 
तू रख ज़रा सा सब्र ’दोस्त’, कर गुमां भरम पे ये
जहां में उसके और कौन है भला तेरे सिवा

ज़रा कर के दिखाये तो
 
ज़रा कर के दिखाये तो
मुझे दिल से भुलाये तो

चलो झूठे बहाने से
ही आये, पर वो आये तो

नई बातें तो की उसने
ग़ज़ल भी पर सुनाये तो

हज़ारों हाथ आयेंगे
वो पत्थर को हटाये तो

लड़े है सब मगर कोई
नया मज़हब चलाये तो

मैं उसको आँसू दे दूँगा
मेरा मातम मनाये तो

तमन्ना है सौ सालों की
जो संग वो मुस्कराये तो
.
अरे मैं जां भी दे देता
मगर वो आज़माये तो
.
मनाना भी है क्या मुश्किल
वो पहले हार जाये तो

खुदा भी मिल ही जायेगा
किसी के काम आये तो

कभी ऐ ’दोस्त’ वो मुझको
खु़द अपने से मिलाये तो

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