Manoshi Hindi Page

prakriti
Home
meri ghazal
holee geet voice
Prem
smriti
pooja
ujaala
prakriti
kuchh khayaal
kuchh yun hee
Haiku
Dohe
Avasar
nazm
baal kavitaayein
be-bahar ghazalein
kahaniyaan
Poetry in English
some links of mine

प्रकृति

सखी बसंत आया

कोयल की कूक तान
व्याकुल से हुए प्राण
बैरन भई नींद आज
साजन संग भाया
सखी बसंत आया

-----------------------------------------------------------------------

गर्मी के दिन फिर से आये

सुबह सलोनी, दिन चढ़ते ही

बन चंडी आंखें दिखलाती
पीपल की छाया भी सड़कों
पर अपनी रहमत जतलाती
सन्नाटे की भाँग चढ़ा कर
पड़ी रही दोपहर नशे में
पागल से रूखे पत्ते ज्यों
पागल गलियाँ चक्कर खाये


गर्मी के दिन फिर से आये


नंगे बदन बर्फ़ के गोलों
में सनते बच्चे, कच्छे में
कोने खड़ा खोमचे वाला
मटका लिपटाता गमछे में
मल कर गर्मी सारे तन पर
लू को लिपटा कर अंगछे में
दो आने गिनता मिट्टी पर
फिर पड़ कर थोड़ा सुस्ताये


गर्मी के दिन फिर से आये


तेज़ हवा रेतीली आँधी
सांय सांय सा अंदर बाहर
खड़े हुए हैं आंखें मूँदे,
महल घरोंदे मुँह लटकाकर
और उधर लड़ घर वालों से
खेल रही जो डाल-डाल पर
खट्टे अंबुआ चख गलती से
पगली कूक-कूक चिल्लाये


गर्मी के दिन फिर से आये


ठेठ दुपहरी में ज्यों काली
स्याही छितर गई ऊपर से
श्वेत रूई के फ़ाहों जैसे
धब्बे बरस पड़े ओलों के
लगी बरसने खूब गरज कर
बड़ी-बड़ी बूंदे, सहसा ही
जलता दिन जलते अंगारे
उमड़ घुमड़ रोने लग जाये


गर्मी के दिन फिर से आये


लागी प्रीत अंग-अंग
टेसू फूले लाल रंग
बिखरी महुआ की गंध
हवा में मद छाया
सखी बसंत आया

पाँव थिरके देह डोले
सरसों की बाली झूमे
धवल धूप आज छिटके
जगत सोन नहाया
सखी बसंत आया

अमुवा की डारी डारी
पवन संग खेल हारी
उड़े गुलाल रंग मारी
सुख आनंद लाया
सखी बसंत आया

dusk1.jpg

शाम आई धीरे से...

सजधज सुंदर संध्या आई
और गुनगुना उठा समां
बाँहों में भर शरमा कर के
लाल हुआ फिर आसमां

बाँध पत्तों की रुनझुन सी
चल दी पुरवा धीरे से
बिखर गया सिंदूर ज़मीं पे
शाम जो आई धीरे से

दीवारों से परछाईं भी
शरमा कर के दूर हुई
फूल को चूमा तितली ने
रंगीन नशे में चूर हुई

धूप ने ओढी काली चादर
उठा चंदा के मुख से आँचल
तभी इक चंचल बादल ने
छुपा लिया वो मुखड़ा सजल

और एक तारे ने फिर खेली
आँगन में जो आँखमिचौली
उसे ढूँढने निकल पडी तब
पीछे से तारों की टोली

ज्यों धीरे से गोटे जडी
चूनर शाम पर छाने लगी
नई नवेली दुल्हन को
पीहर की याद आने लगी

चली मदमाती संध्या रानी
बाबुल के घर क्षितिज के पार
और चाँद ने की ज़मीन पर
झर झर चाँदी की फुहार

आंखों में कुछ सपने लेकर
रात रुपहली छाँव में
झिंगुर के गुनगुन के बीच
निशा बसी गाँव में

काले पेडों की परछाईं
और कुहरे का धुंधलका
सज गया जग नये रंगों में
सोया नीन्द की बाँहों में

वसंत

झूमे डाल लद फूलों से अंग
झर-झर झर रहा सुनहरा रंग
सजी धरा बन पीली दुल्हन
छाया वसंत सखी आया वसंत

पी के प्रेम कोयल मतवारी
मदहोश बिरही कूकती हारी
बौर आम के जो फैली सुगंध
छाया वसंत सखी आया वसंत

पीली चुनरी धूप थिरके अंग
सरसों की बाली डोले है संग
रूप देख सुंदर लजाई ठंड
छाया वसंत सखी आया वसंत

लाल पलाश बिछे धरा बिछौना
उड़े गुलाल सजे रंग सलोना
रंगों की बयार है चली अनंत
छाया बसंत सखी आया वसंत


 
 
ग्रीष्म
 
रौद्र रूप में प्रचंड प्रकोपी
आया सूरज तेज दिखाने
दुपहर के सूने मरुथल में
अलसाया सा गोते लगाने

संग अजगर सी लंबी सिसकी
लंबीं सांय सांय करती
लू लिपटाती अपनी जिह्वा
चारों दिक बाँहों में भरती

काँपती ठिठुरन पे अपनी
चमकाती तलवार चलाती
सूखे पत्तों के आंगन में
बेताला तांडव दिखलाती

दिन भर हाहाकार मचा कर
सारे जग को सता सता कर
सन्नाटे को और बढ़ा कर
गलियों में उत्पात मचाकर

नन्हें बालक की चोरी ज्यों
शाम को फिर पकडी जाती
आंखें तब चुपचाप झुका कर
सांध्य बयार में घुलमिल जाती

निकल पड़े जो पांव धूप के
विस्तृत फैले इस आंगन में
गरम हथेली ताप सेंकने
झुलस गया हाँ सारा जग ये
 
--------------------------------------
 
पतझड़ की पगलाई धूप

भोर भई जो आँखें मींचे
तकिये को सिरहाने खींचे
लोट गई इक बार पीठ पर
ले लम्बी जम्हाई धूप
अनमन सी अलसाई धूप


पोंछ रात का बिखरा काजल
सूरज नीचे दबा था आँचल
खींच अलग हो दबे पैर से
देह आँचल सरकाई धूप
यौवन ज्यों सुलगाई धूप


फुदक फुदक खेले आँगन भर
खाने-खाने एक पाँव पर
पत्ती-पत्ती आँख मिचौली
बचपन सी बौराई धूप
खिल-खिल खिलखिलाई धूप
पतझड़ की पगलाई धूप
 

all poems by Manoshi Chatterjee