स्मृतियों के आँगन
में
स्मृतियों के विस्तृत
आँगन में मन मन्दिर के
इस प्राँगण में उस मूरत
के छाँव तले अब इक दीपक
चुपचाप जले
इक लहराता सा प्रतिबिम्ब उभरे
और हो जाये धूमिल फिर छलकाती
बूँदों के सँग सरिता
सी बन निर्झर झरे
आँचल में बँध कर वह कुछ
क्षण
स्मृति के काजल में
डूबे प्रण
पूनम रूप बिखराती
रातें बन सादी बिरहिनी
झरे
प्राणों मे गूँथे हों
ज्यों स्वर मधुर राग बन
झंकृत हो कर बज उठे जल तरंग
सी हवा प्रणय गीत बन कर
सुर ढले
सीमाऒं के बंधन सब तज आँखों
में सुन्दर सपना सज दबे
पाँव आते हो जब तुम लहरों
का उफ़ान चले
जल रहा सब नवैद्य थाल
में स्मृति को गूँथ जीवन
माल में अन्तर में पीड़ा
असह्य अब
सपन यथार्थ के गाँव
चले
आज नहीं मन मेरा जलने
को तैयार
ठहरे हैं कुछ क्षण प्रत्याशा
में कई बरसों से मेरे द्वारे आज
नहीं पर मेरा मन है फिर
से जलने को तैयार
छोड़ आयी सोचा था पिछ्ले
राहों पर ही सब जंजाल
पर स्मृतियों को बड़े जतन
से स्मृतियों में रक्खा
संभाल अब छल से आँखें
रिसती हैं और बूँदें
वह चुपके से ही बार बार धो आती
आंगन, खोल कठिन स्वप्न
जाल उठ जाते हैं पग मेरे
क्यों पीछे चलने को हर
बार आज नहीं पर मेरा मन
है फिर से जलने को तैयार
बाँध तोड कर झरे नयन, पर
हृदय अहं का मारा था इस
वर्षा में भीगे कोई और
नहीं गवारा था मेरे दर्द
और उसकी पीडा के द्वंद
में उलझ कर अश्रु बन बहने
से पहले प्रेम जल कर हारा
था लिपट कर स्मृतियों
से मन मचल रहा बार बार आज
नहीं पर मेरा मन है फिर
जलने को तैयार
वो लम्हें
हर लम्हा कहीं एक टूटे-फूटे
से दर्द का एह्सास दिलाता
है वो जो छूट गया कभी आज
भी मेरे इर्द्-गिर्द मंडराता
है मैं झटक कर फेंक दूँ
मगर चिपक कर उसका कोई हिस्सा जो
जुडा छूटता ही नहीं फिर
किसी पुरानी रात का साया मेरे
छत पर मंडराता है दूर फेंक
चुकी थी मैं उसे कही से
किसी ने उछाल दिया फिर लपक
कर ना पकडूँ सोच कर भी गिरने
ना दे सकी उसे कभी जो मेरा
हिस्सा था आज कोई छोर मेरी
छोटी उँगली के एक कोने
से बँधा इठलाता है झटक
कर छुडा लूँ मैं मगर ऎसा
बँधा कि छूटता ही नहीं इसी
उम्मीद में कटती है मेरी
हर शाम
कि कभी तो हो शामे मेरी साफ
सुथरी और हल्की कभी तो
ये सामान उतारूँ मैं और
उडूँ आसमान में एक खुले
परिन्दे की तरह्...
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