हम और तुम
कल की ही तो बात
है प्रियतम अजनबी से हम
मिले थे कनखियों से कुछ
कहा था आँखों में थीं ढेरों
बातें बात जो एक छोड़ आये
थे अनजाने ही वहीं रखी
है
.
बात बढ़ी फिर, हाथ
मिले फिर तुम मिले जो, साथ
चले फिर अनछुये किताब
के पन्ने मिल के दो अक्षर
पढ़े फिर लिखने को और आधा
अक्षर साथ रुपहला कलम
उठाया
टेढ़ी मेढ़ी थी
पगडंडी हाथ थाम कर निकल
पड़े हम कभी धूप को मुँह
चिढ़ाया कभी छाँव की पूँछ
पकड़ ली कच्चे पक्के
स्वाद निराले आधा
आधा चखे हम दोनों
अक्सर पगली हवा उड़ी जब बाँह
खोल कर वृक्ष तने तुम चंचल
लहरों सी मचली मैं सागर
में एक द्वीप बने तुम अपना
सर रख सीप की गोदी में मोती
बन छुई मुई सोई
एक
रेत की सूखी आँधी में उजड़े
जब कुछ सपने थे आँसू से
सीले लम्हे चुन साथ सिरहाने
रख कर सोये
चंदा की लोरी की
यादें
बादल के पिछवाड़े
रख कर आँखों में फिर नये
स्वप्न के इंद्रद्गनुष
को रंग लगाये
कई
बुलबुले उठे खो गये कई
राह में अलग हो गये तुम
और हम बस साथ निभाते चले
नाव को साथ खिवाते अभी
दोपहर की छतरी में शाम
जो आसन बिछा रही है
पग पग हम बढ़ उधर
रहे हैं उंगली में उंगली
उलझाये
शाम से होगी रात
एक दिन रात के बाद इक नया
सवेरा तब पिछली रातों
की गिनती तारों की हम बात
करेंगे मगर कभी क्या ये
सोचा है तुमने या फिर मैंने
ही कि आज भी वो इक बात अनकही इतराती
है उसी भवन में?
चलो
आज फिर लौट जायें
चलो आज फिर लौट
जायें माप लें
फिर से समंदर
चलो
फिर उड़ कर के छू लें
आसमान के उड़ते पर
हर हवा नहीं
करती किलकारी
गूँजती
नहीं हर एक ख़ामोशी
बेआकार रहने दो, रहस्य
कोई एक छवि भी हो बेरंग
दूर बहुत जाकर
अपनों में
अपनों
से अपनों में मिल कर
चाँद के पिछवाड़े गिनते
तुम और मैं अपने अपने
पल
पानी
के थोड़े से छींटे, पर
प्यासी धरती बन मधुशाला
सीले से अहसास में
भीगी
सूखी मिट्टी
की सोंधी गंध
चलो चलें फिर लौट जायें...
तुम्हारे जाने
से पहले
मैंने बातों से
बातें कातीं कई सफ़ेद कपास
की बातें और एक रेशम का
धागा जोड़ा नीला समंदर
कातने छोटी छोटी लहर काढ़ने और
आकाश में उड़ाने पंछी सूत
में रेशमी धागा कई हज़ार
सितारों से जड़ा महीन मोतियों
से गढ़ा बातें तो सादी थीं रेशम
से उलझ कर सिरा खो गया कहीं जो
सिरा मिल जाता पूरा तन
ढक जाता मन छुप जाता और
बातें कात लेतीं बातों
से मन को पूरा विश्व समा
जाता एक आकृति बन जाती तुम्हारे
जाने से पहले...
इंतेहा कि आग़ाज़?
हर पल, हर ज़र्रा सिर्फ़
उनसे है, उन ही से है कायनात। उन्हें
महसूस कर हर साँस में, मेरा
क़तरा क़तरा डूब कर पिघल
जाता है और फिर आख़िर में
जाकर मिलता है उन ही से... ये
क्या है, इंतेहा कि आग़ाज़?
Shoonya
शिलाधार! बड़े
बेचैन हो आज बहुत दिनों
बाद फिर किसी शोर से भटका
है मन तुम्हारा है न? रात
अनगिनत भटके हो बहुत अधूरे
हो सुनो, पूर्णता अहसास
है संपूर्ण कौन हुआ है
भला एक छ्द्म वेश ही सही धुरी
पर अटक कर स्थिर बने रहने
के लिये कब जन्म लिया था
तुमने? पर रहो स्थिर स्थिरता
ही तो संपूर्णता है वो
आख़िरी बिंदु जहाँ ’मैं’
समाप्त होता है ’तुम’
समाप्त होता है और बस रह
जाता है एक शून्य आओ उस
शून्य को पा लें अब...
आज कुछ माँगती हूँ प्रिय...
(रचना: जुलाई २००६)
आज कुछ माँगती हूँ मैं प्रिय क्या दे सकोगे तुम? मौन का मौन में प्रत्युत्तर अनछुये छुअन का अहसास देर तक चुप्पी को बाँध कर खेलो अपने आसपास क्या ऐसी सीमा में खुद को प्रिय बांध सकोगे तुम आज कुछ माँगती हूँ प्रिय...
तुम्हारे इक छोटे से दुख से कभी जो मेरा मन
भर आये ढुलक पड़े आँखों से मोती सीमा तोड़ कर बह जाये तो ज़रा देर उँगली पर अपने दे देना रुकने को जगह तुम उसे
थोड़ी देर
का आश्रय प्रिय क्या दे सकोगे तुम? आज कुछ
मांगती हूँ प्रिय...
कभी जब देर तक तुम्हारी आंखों में मैं न
रह पाऊँ बोझिल से सपनों के भीड़ में धीरे से गुम हो जाऊँ और किसी छोटे से स्वप्न के पीछे जा कर छुप जाऊँ ऐसे में बिन आहट के समय को क्या लाँघ सकोगे तुम आज कुछ माँगती हूँ प्रिय..
रचना (अगस्त २००८)
खेल
याद है कल की रात?
मेरी आँखों का हठ
और तुम्हारी खामोशी?
नीद से लड़ कर जागी थीं मेरी
आंखें
सारी सारी रात
और तुम आये थे सपना बन
खेलने आहट आहट
क्यों धोखे से छूआ था
मुझे तुमने
खामोशी के छलावे में?
आहट के खेल में कैसी खामोशी?
नहीं तुम्हारे छूने को
नहीं मानती मैं
रूठ कर चले गये थे तुम
आज सुबह धुँधला सा याद
है मुझे
मेरी आँखों ने तब फिर
खेला था समंदर समंदर
तुम भी तो आये थे खेलने
सैलाब बन कर
हाँ अब की बार नहीं रूठे
तुम
दोनों बह निकले थे
सुनो, अब ये खेल खत्म करो
अब तो सुबह हो गई
सैलाब और समंदर नहीं अब
आज रात मेरी आँखें खेलेंगी
कहना कहना
तुम भी आओगे न फिर
कोई कहानी बन कर?
मेरी व्यथा
(रचना: २००५ दिसंबर)
चुप अधरों
में बन्द शब्दों के भेद
को कैसे पढ़ेगा क्या समझेगा
मेरी व्यथा जो गुज़रा न
हो उस ताप से
सुबह सिरहाने
बैठ किरण एक चुनती है नींद
नयन से शाम की बाती जलती
है प्रतिदिन चुपचाप नियम
से उस सुबह से शाम तक के
वही पुराने रंग ढंग में देख
कर चुलबुलापन ढल गया सूरज
चुपचाप से क्या समझेगा
मेरी व्यथा जो गुज़रा न
हो उस ताप से
कुहरे की झीनी
चूनर ने ढका पर्बत का बदन चंदा
का मुख चूम बदरी चली संग
संग अपने सजन खेल ऐसे देख
दबे पांव लाज छू गयी मेरा
भी तन नींद लडती रही नयन
के बिछौने में ही आप से क्या
समझेगा मेरी व्यथा जो
गुज़रा न हो उस ताप से
चंचलता अकुलाहट
में मन फ़ँसा कर रहा हाहाकार निराकार
एक स्वप्न को रूप दिया
हृदय ने साकार सही गलत
का ताना बाना उलझ रह गया
अहंकार प्रेम सुधा में
विष घुलेगा जो मन नहाया
पाप से क्या समझेगा मेरी
व्यथा जो गुज़रा न हो उस
ताप से
तुम नहीं आये...
(रचना: २००४ सितंबर)
आज फिर शाम
हुई और तुम नहीं आये आस्मां
की लाल बिन्दी छूने चली
भौंहें क्षितिज की और
कुछ झोंके हवा के ढेरो
भीगे पल ले आयें पर तुम
नहीं आये...
चल पडा ये मन
अचानक फिर उसी पेड के नीचे
से गुज़रा कुछ सूखे पत्ते
पडे थे नीचे और एक पहचानी
खुशबू आ लिपटी वैसा ही
एक पत्ता कब से मेरे सपनों
के पास रखा है रेत की सूखी
आँधी में जाने क्यों मचल
उठता है उडता है वो गोलगोल
और उसी खुश्बू से जा उलझता
है जैसे उलझा करते थे कभी
झूठी कहानियों पे हम भी आज
क्यों पत्ते चुपचाप पडे
हैं कैसे उस खुशबू को समझायें शाम
वही पर तुम नहीं आये
अभी गुज़रा मेरे
पास से एक पल हल्की सी दस्तक
दे गया वो गुनगुना रहा
था वही धुन जिसपे हम दोनों
साथ चले थे कभी कितने बेसुरे
लगते थे तुम मेरा सुर हँसता
था तुम पर आज भी वो ढूँढ
रहा तुम्हें कैसे उस सुर
को समझायें शाम हुई तुम
क्यों नही आये....
मौन...
(रचना: २००५ पूर्वार्ध)
किसी निस्तब्ध रात
में एक बूँद का टपकना कुछ
पत्तों की कानाफ़ूसी और
चाँदनी की झरती हँसी सुन
कर मान लेना मेरा कि तुम
हो...
हवा की खनक सुन एक
भँवरे का उड जाना ज्यों
फूल का मौन क्रन्दन ऐसे
ही रोता रिक्त जीवन भर
जाना फिर से मेरा कि आये
तुम हो...
बंद नैनों की मूक भाषा पढ
कर वो मौन निमन्त्रन काँपते
अधरों से शब्द छीन चुपके
से घेर लेता एक बंधन खुशी
से उसमें बंध जाना मेरा
कि जीवन तुम हो...
मेरे प्रियतम
कभी किसी रुके हुये प्रवाह
में बह जाने को मन हो मेरा जब
नींद से उठ कर चारों तरफ
पाती हूँ मैं अंधेरा तब
तुम्हारे प्रेम की नैया
के सहारे घूम आती हूँ काली
रात पार कर उस छोर पर देख
आती हूँ जहाँ कई छोटे झोंपडे
टिमटिमाती रोशनी में
भी अंधेरों के बीच जल रहे
हैं उस रेत पर बनाये निशान
को एक बार छू आती हूँ उस
रेखा को देख आती हूँ जो
अपनी छाप मिटा नही सकी मौन
तुम्हरी आवाज़ सुनती हूँ
मैं अव्यक्त तुम्हारे
शब्द आँचल से आकर लिपट
जाते हैं मेरे और मेरा
भीगा आँचल समेट लेता है
तुम्हारे भीगे मन को आँखों
से बहते समन्दर को मेरे रोक
लेती हैं तुम्हरी अंजुलि मेरे
साथ चलते हो चुपचाप निशब्द
, मैं जानती हूँ न जानते
हुये भी कि हर क्षण मैं
पाऊँगी तुम्हें अपने
पास, जीवन भर प्रिये मेरे
हृदय में...
आसमां
सितारों का जमघट
चाँदनी के बिखरे कण एक
टुकडा बादल का और एक ह्ल्की
नीली रात कुछ पेडों की
काली परछाईं और हू-हू करती
आवाज़ मेरे छत की मुंडेर
पर मेरे साथ चुपचाप बिन
कहे एक शब्द् मेरा साथ
निभाता वो कि दोनों ने
एक साथ गुज़ारे हैं कई
सारे ऐसे पल आज वो खाली
और साफ कोरा और खुला मगर
मैं रंग चुकी हूँ उसकी
ओर देखती मुग्ध हो निहारती कि
वो आस्मां है और मैं ज़मीन
पर एक टुकडा मिट्टी का...
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