प्रिय नहीं
आना अब सपनों में
प्रिय नहीं आना अब
सपनों में स्मृति
को तुम्हारे आलिंगन कर रहने दो मुझे अपनों
में प्रिय नहीं
आना अब सपनों में
जाने कितने पल उधेड़े
उलझे
थे जो इंद्रधनुष में जिसको हमने संग गढ़ा
था रंग भरे थे रिक्त
क्षणों में
प्रिय नहीं
आना अब सपनों में
रुमझुम गीतों
के नूपुर में जड़ी
जो हमने गुनगुन बातें उस सुर से बुन मैंने
बाँधी गाँठ स्वप्न
और मेरे नयनों में प्रिय नहीं आना अब सपनों
में
कभी
खनक उठते हँसते पल और आँसू से सीले लम्हे कभी मादक सी उन शामों
को बह जाने दो अब
झरनों में प्रिय
नहीं आना अब सपनों में
मैंने बातों से
बातें कातीं कई सफ़ेद कपास
की बातें और एक रेशम का
धागा जोड़ा नीला समंदर
कातने छोटी छोटी लहर काढ़ने और
आकाश में उड़ाने पंछी सूत
में रेशमी धागा कई हज़ार
सितारों से जड़ा महीन मोतियों
से गढ़ा बातें तो सादी थीं रेशम
से उलझ कर सिरा खो गया कहीं जो
सिरा मिल जाता पूरा तन
ढक जाता मन छुप जाता और
बातें कात लेतीं बातों
से मन को पूरा विश्व समा
जाता एक आकृति बन जाती तुम्हारे
जाने से पहले...
प्रिय
करो तुम याद
प्रिय करो तुम
याद स्वर्णिम पल, वो दिन
था कितना सुंदर
व्यक्त
था जो मौन, नयनों में बहा
था नेह बन कर
खिल
उठा था फूल कोई भोर की किरणों
को छूकर इक भ्रमर
मदमस्त हो झूमा सहर्ष
बन्दी बना कब प्रेम
धारा डूबकर सागर में परिचय
पा गई फिर तुम असीम
में खो गई मैं तुच्छ कोई
अर्घ्य बन कर जल
रही अब बन शिखा मैं वक्ष
दीप का चूमती हूँ बन तुम्हारी आत्मा मैं
अपनी काया ढूँढती हूँ
धार अमृत
बह रही है, चिरपिपासित
भूमि बंजर हो गई
अब प्रेम से सींचा हुआ
मरुद्वीप, प्रियवर!
हाथ की पगडंडी
पर मैं कब तुम्हारे चल
पड़ी और तुम सितारों
की लड़ी बन माथ की राहों
में सँवरे वेदना
से सिक्त रातें अश्रु
की हर धार प्रियतम जो हमारी आत्म की गहराई
में फिर ऐसे उतरे बँध के मन के पाश भी मैं
हो स्वच्छंद खेलती हूँ प्रीत में जल कर कपूर
के गंध जैसा फैलती हूँ
छवि तुम्हारी
खेले निशि दिन हर प्रहर
जो स्वप्न बन कर हृदय स्पंदन में बसे
तुम प्राण बन हे प्रिय
निरंतर...
शमन के अंतिम
चरण में आस थरथराती क्यों
हो
लौ को अपने
दीप पर कुछ प्राण का विश्वास
तो हो
शांत हो जलती
कभी तो संग स्पंदन के थिरकती रात की स्याही से अपने
रूप को रंग कर निखरती देह जल कर भस्म हो
उस ताप में, पर मन नहाये अश्रु-जल की बूँद से
वह पूर्ण सागर तक समाये
त्याग अंतर का
अहं, हो पूर्ण अर्पण, प्यार
वो होलौ को
अपने दीप पर कुछ प्राण
का विश्वास तो हो
अंग अंग सोना बना है गहन
पीड़ा में संवर कर प्रज्ज्वलित है मन किसी
आनंद अजाने से निखर कर बन जो बैठी प्रियतमा
अब प्रेम बंधन कैसे छूटे तृषित मन की कामना
है मधु की हर बूँद लूटे
रस में डूबे इस
दिवस की राह में कोई शाम
क्यों होलौ
को अपने दीप पर कुछ प्राण
का विश्वास तो हो
है अचेतन मन, मगर हर क्षण
में उसका ध्यान भी है रोष है दिल में मगर
विश्वास का इक स्थान भी
है देह के सब बंधनों
को तोड़ कर कोई अलक्षित आस की इक सूक्ष्म रेखा
बाँधती होकर तरंगित पास हो या दूर
हो उस साँस पर अधिकार वो
हो लौ को अपने दीप
पर कुछ प्राण का विश्वास
तो हो
प्रिय तुम...
(रचना: २००५ शेषार्ध)
प्रिय तुम
मेरे संग
एक क्षण बाँट लो
वो क्षण आधा मेरा होगा
आधा तुम्हारी
गठरी में
नटखट बन खेलेगा मुझ संग
तुम्हारे स्पर्श का
गंध लिये
प्रिय तुम
एक ऐसा स्वप्न
हार लो
बता जाये तुम्हारे मन
की जो
मेरे पास
आकर चुपके से
तुम सोते
होगे जब भोले बन
सपना खेलेगा
मेरे नयनों में
प्रिय तुम
वो रंग आज
ला दो मुझको
जिसे तोडा
था उस दिन तुमने
और मुझे दिखाये
थे छल से
बादलों के
झुरमुट के पीछे
छ: रंग झलकते
इन्द्रधनुष के
प्रिय तुम
वो बूंद रख
लो सम्हाल कर
मेरे नयनों
के भ्रम में जिस ने
बसाया था
डेरा तुम्हारी आंखों
में
उस खारे बूंद
में ढूंढ लेना
कुछ चंचल
सुंदर क्षण स्मृतियों
के
प्रिय
तुम...
चलो....
(रचना: २००४ शेषार्ध)
चलो हम आज सुनहरे सपनों
के रुपहले गाँव में घर
बसायें
झिलमिल तारों की बस्ती
में परियों की जादू छड़ी
से अपने इस कच्चे बंधन
को छूकर सोने का बनायें
तुम्हारी आशा की राहों
पर बाँधे थे जो ख्वाबों
से पुल चलो आज उस पुल से
गुज़रें और क्षितिज के
पार हो आयें
हवा ने भी चुरायी थी कुछ
हमारी बातों की खनक रिमझिम
पडती बूँदों के संग चलो
उन स्मृतियों में घूम
आयें
बाँधी थीं सीमायें हमने अनकही
कुछ बातों में जो चलो एक
गिरह खोल कर आज बंधनमुक्त
हो जायें
चलो हम आज सुनहरे सपनों
के रुपहले गाँव में घर
बसायें
तुम्हें है ये अधिकार
प्रियतम
रचना: २००८ अगस्त
तुम्हें है ये अधिकार
प्रियतम तुम्हें है अधिकार
कि तुम सूरज से लेकर चिंगारी बस
थोड़ी, भर एक चुटकी रख दो
मेरे माथे पर और भर दो रौशनी मेरी
माँग में शोला बनकर
तुम्हें
है ये अधिकार प्रियतम तुम्हें
है अधिकार कि तुम लेकर
चंदा से ज़रा सी झरती हुई
रेशम चाँदनी जड़ दो मेरे
इन बालों में और खेलो मेरे
गिरती लट से सारी रात फूँक
बन कर
तुम्हें है ये अधिकार
प्रियतम तुम्हें है अधिकार
कि तुम सितारों जड़े आसमान
को डाल दो मेरे सूने सर
पर और छुप जाओ मेरे ही संग
उसमें समा जाने मेरी आँखों
में खुद वृहद आस्मां
बन कर
तुम्हें है ये अधिकार
प्रियतम तुम्हें है अधिकार
कि तुम उस गुलाब से चुराकर
उसकी दो पँखुड़ियों को
सजा दो मेरे इन सूखे होठों
पर और नशे में हो जाओ मदमस्त
चूर भ्रमर बन कर
तुम्हें
है ये अधिकार प्रियतम तुम्हें
है अधिकार कि तुम उस समंदर
से छीन कर उसका गहरा विशाल
हृदय छुपा लो मेरे कई हज़ार सपनों
को अपने अंदर एक बड़ी लहर
बन कर
तुम्हें है ये अधिकार
प्रियतम तुम्हें है अधिकार
भी कि तुम तोड़ लाओ काँटे
जहाँ भी मिले और छलनी कर
दो गर चाहो तो मेरे सीने
को अपनी बातों से कोई
सुंदर नागफ़नी बन कर
बस
और इतना कर लेना प्रिय तुम
मेरी बात मान कर चुरा लेना
समय से कुछ क्षण बाँध लेना
अपनी स्मृतियों में फिर
बहा देना मुझे पानी समझ
कर एक बूँद आँसू बन कर
किस अनजाने बादल
ने...
(रचना: २००४ शेषार्ध)
किस अनजाने बादल ने फिर
अमृत है बरसाया आज उमड़ घुमड़ कर बरसा
मन ये
स्वप्न नगर हो आया आज किस अनजाने बादल
ने...
चंचल हिरनी सा है डरता बहने को आतुर, सम्भलता भावों
के गहरे सागर में
डूबा फिर से मौन उभरता वेदना में डूबा फिर
भी मन क्यों
ये हर्षाया आज किस अनजाने बादल ने
फिर
अमृत है बरसाया आज
शीतल ज्यों हवा
का झोंका
अपने मृदु अह्सास में
भीगा मौन रहा पर
जाल बुने कुछ नयन
झुका चुपचाप ही झरता अश्रु सींचित भाव
छुपाये उस छव मन
रमाया आज किस अनजाने
बादल ने फिर
अमृत है बरसाया आज
खेला निश-दिन सपनों
में मन व्याकुल
हर क्षण की प्रतीक्षा घर को लौटा थका परिन्दा साथ दोनों का दिन
जो ढलता मिलकर दो
पल सुर में गाये
मन को मन जो भाया आज
किस अनजाने बादल ने फिर
अमृत है बरसाया आज
अहसास
कभी आँखें बन्द किये हुये हवा
की बिखरती बूंदा-बांदी
में अपने चेहरे पर गिरती
सूइयों की नोक को महसूस
कर जब उस अह्सास से खुद्-बखुद मुस्करा
उठते हैं होंठ
जब सर्द रातों में कँपकँपाते
हुये दौड कर आ बिस्तर पर
रज़ाई को हमराज़ बना गुदगुदाते
कोमल अह्सास में कभी चुपके
से फुसफुसा उठते हैं होंठ
जब तेज़ हवा के झोंकों
से उडती लटों को सम्हालने
की बार बार कोशिश में कभी किसी
चिरपरिचित नज़र के एकटक
अह्सास से थरथरा उठते
हैं होंठ
कभी मचल उठ्ता है मन और
बेहद खुश हो बेवजह आंखों
में भर आता है पानी तब उस
मदहोश अह्सास में सिसकते
हुये कभी जब हौले से कँपकँपा
उठते हैं होंठ
तो छुपा कर रख लेती हूँ
मैं उन पलों को कि अह्सास
की खुश्बू से महकते ये
पल कहीं बह ना जाये आँखों
से या मुसकान के साथ झर
न जाये कहीं एक ही पल में
समेट लेती हूँ हर पल कि
हर अह्सास के साथ जुडे
हैं जाने कितने अह्सास और
कहीं.....तुम .
स्वीकृति
स्वीकृति दी मैने आज तुम्हारे
हृदय को मेरे हृदय्-स्पंदन
के साथ थिरकने की
स्वीकृति दी मैने आज तुम्हारे
स्म्रृति को मेरे रक्तिम
स्वर्ण गंगा में बहने
की
स्वीकृति दी मैने आज तुम्हारी
आत्मा को मेरे अंत:करण
के तल में उतरने की स्वीकृति
दी मैने आज तुम्हारे स्वर
को मेरे अपूर्ण रचित राग
में अंतिम श्रुति बनने
की
स्वीकृति दी मैने आज तुम्हारे
मन को मेरे व्यथित मन के पीडा
को हरने की
है मेरे जीवन का ये अनमोल
क्षण कि स्वीकृति दी मैने
आज अपने आपको तुम्हे अर्पण
करने की
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