सखी बसंत आया
कोयल की कूक
तान व्याकुल
से हुए प्राण बैरन भई नींद आज साजन संग भाया सखी
बसंत आया
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गर्मी के दिन
फिर से आये
सुबह सलोनी,
दिन चढ़ते ही
बन चंडी आंखें
दिखलाती
पीपल की छाया
भी सड़कों पर अपनी रहमत
जतलाती
सन्नाटे की
भाँग चढ़ा कर
पड़ी रही दोपहर
नशे में
पागल से रूखे
पत्ते ज्यों
पागल गलियाँ
चक्कर खाये
गर्मी के दिन
फिर से आये
नंगे बदन बर्फ़
के गोलों
में सनते बच्चे,
कच्छे में
कोने खड़ा खोमचे
वाला
मटका लिपटाता
गमछे में
मल कर गर्मी
सारे तन पर
लू को लिपटा
कर अंगछे में
दो आने गिनता
मिट्टी पर
फिर पड़ कर थोड़ा
सुस्ताये
गर्मी के दिन
फिर से आये
तेज़ हवा रेतीली
आँधी
सांय सांय सा
अंदर बाहर
खड़े हुए हैं
आंखें मूँदे,
महल घरोंदे
मुँह लटकाकर
और उधर लड़ घर
वालों से
खेल रही जो डाल-डाल
पर
खट्टे अंबुआ
चख गलती से
पगली कूक-कूक
चिल्लाये
गर्मी के दिन
फिर से आये
ठेठ दुपहरी
में ज्यों काली
स्याही छितर
गई ऊपर से
श्वेत रूई के
फ़ाहों जैसे
धब्बे बरस पड़े
ओलों के
लगी बरसने खूब
गरज कर
बड़ी-बड़ी बूंदे,
सहसा ही
जलता दिन जलते
अंगारे
उमड़ घुमड़ रोने
लग जाये
गर्मी के दिन
फिर से आये
लागी प्रीत अंग-अंग टेसू
फूले लाल रंग बिखरी महुआ
की गंध
हवा में मद
छाया सखी बसंत
आया
पाँव थिरके
देह डोले
सरसों की बाली
झूमे
धवल धूप आज
छिटके
जगत सोन नहाया
सखी बसंत आया
अमुवा की डारी
डारी
पवन संग खेल
हारी
उड़े गुलाल
रंग मारी
सुख आनंद लाया
सखी बसंत आया

शाम आई धीरे से...
सजधज सुंदर संध्या आई और गुनगुना उठा समां बाँहों में भर
शरमा कर के लाल हुआ फिर आसमां
बाँध पत्तों की
रुनझुन सी चल दी
पुरवा धीरे से बिखर गया सिंदूर ज़मीं पे शाम जो आई
धीरे से
दीवारों से परछाईं भी शरमा कर के
दूर हुई फूल को चूमा तितली ने रंगीन नशे में चूर हुई
धूप ने
ओढी काली
चादर उठा चंदा के मुख से आँचल तभी
इक चंचल बादल ने आ छुपा लिया वो मुखड़ा सजल
और एक तारे ने फिर खेली आँगन में जो आँखमिचौली उसे ढूँढने
निकल पडी तब पीछे से तारों की टोली
ज्यों धीरे से
गोटे जडी चूनर शाम पर छाने लगी नई नवेली दुल्हन को
पीहर की याद आने लगी
चली मदमाती संध्या रानी बाबुल के घर
क्षितिज
के पार और
चाँद ने की
ज़मीन पर झर
झर चाँदी की
फुहार
आंखों में कुछ सपने लेकर रात रुपहली छाँव
में झिंगुर के
गुनगुन के बीच निशा आ बसी गाँव में
काले पेडों की
परछाईं और कुहरे का
धुंधलका
सज गया जग
नये रंगों में सोया
नीन्द की बाँहों में आ
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